Book Title: Vyavaharnay ki Abhutarthtaka Abhipray Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 2
________________ ८८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ पदार्थ भतार्थ कहलाता है और जिसका ग्रहण भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनय द्वारा होता है ? इसी तरह पदार्थको अभूतार्थता क्या वस्तु है, जिसके आधारपर पदार्थ अभूतार्थ कहलाता है और जिसका ग्रहण अभूतार्थ कहे जानेवाले व्यवहारनयद्वारा होता है ? आगे इसी विषयपर विचार किया जाता है । प्रत्येक वस्तुमें दो प्रकारके धर्म विद्यमान रहते हैं--एक तो वस्तुके स्वतःसिद्ध धर्म और दूसरे आपेक्षिक धर्म । प्रकृतिमें वस्तुके जितने स्वतःसिद्ध धर्म होते हैं उन्हें ही भूतार्थ धर्म समझना चाहिए और वस्तुके जितने आपेक्षिक धर्म होते हैं उन्हें ही अभूतार्थ धर्म समझना चाहिए । वस्तुके स्वतःसिद्ध धर्मोंको भूतार्थ कहनेका कारण यह है कि इनके आधारपर वस्तुका स्वतन्त्र (स्वावलम्बनपूर्ण), स्वतःसिद्ध (अन्यकी अपेक्षाके बिना ही स्वके आधारपर निष्पन्न), स्वाश्रित (वस्तुको अपनी ही सीमामें रहनेवाला), व्यापक ( स्वको व्याप्तकर रहनेवाला), प्रतिनियत (अन्य सभी वस्तुओंमें नहीं पाया जानेवाला) और शुद्ध (अखण्ड अर्थात् अमिश्रित एकत्वविशिष्ट) स्वरूप निश्चित होता है। स्वतःसिद्ध धर्मों की इस विशेषताके आधारपर ही अनन्त जीवद्रव्य, अनन्त अणुरूप पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात अणुरूप कालद्रव्य ये सभी वस्तुएँ अपने-अपने पृथक्-पृथक व्यक्तित्वको धारण किये हए विश्वमें अनादिकालसे रहती आयी हैं और अनन्तकाल तक रहनेवाली हैं । जीवद्रव्योंका अपना-अपना चित्स्वभाव ( ज्ञायक भाव ), पदगल द्रव्योंका अपना-अपना रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्व, धर्मद्रव्यका जीवद्रव्यों और पुदगलद्रव्योंकी हलन-चलन क्रियामें सहकारित्व, अधर्मद्रव्यका जीवद्रव्यों और पदगलद्रव्योंकी स्थितिमें सहकारित्व, आकाशद्रव्यका समस्त द्रव्योंको अपने अन्दर समा लेनेकी सामर्थ्यरूप अवगाहकत्व और कालद्रव्योंका समस्त द्रव्योंकी वर्तमानतामें साहाय्यरूप वर्तना इनके अपने-अपने स्वतःसिद्ध धर्म हैं। अग्निको उष्णता और जलकी शीतलता भी क्रमसे अग्निका और जलका अपना-अपना स्वतःसिद्ध धर्म है क्योंकि इनके आधारसर अग्निका तथा जलका भी अपना-अपना स्वरूप और व्यक्तित्व निर्धारित होता है। वस्तुके आपेक्षिक धर्म दो प्रकारके होते हैं। एक प्रकारके आपेक्षिक धर्म वे हैं जो भेदके आधारपर वस्तु में उत्पन्न होते हैं और दुसरे प्रकारके आपेक्षिक धर्म वे हैं जो अन्य वस्तुके आधारपर वस्तुमें उत्पन्न होते हैं। इन सभी आपेक्षिक धर्मोको अभूतार्थ कहनेका कारण यह है कि ये धर्म वस्तुमें सर्वदा विद्यमान न रहनेके कारण उसके स्वरूप और व्यक्तित्वका निर्धारण करनेमे सहायक नहीं होते हैं। जीवके अन्दर मुक्ति और संसार तथा संसारमें भी विविध अवस्थाओं कृत भेदके आधारपर तरतमभावसे पाये जानेवाले दर्शन, ज्ञान और चारित्र भेद सापेक्ष आपेक्षिक धर्म हैं तथा जीवके अन्दर ही पौद्गलिककर्मों के सहयोगके आधारपर तरतमभावसे पाये जानेवाले राग, द्वेष, मोह आदि औदयिक भाव तथा क्षायोपशमिक आदि भाव अन्य वस्तु सापेक्ष आपेक्षिक धर्म है। इसी प्रकार जलमें पायी जानेवाली उष्णता भी अन्य वस्तु-सापेक्ष आपेक्षिक धर्म है। जीवमें पाये जानेवाले राग, द्वेष और मोहरूप औदयिक भाव उस उस पौद्गलिककर्मका उदय होनेपर ही उत्पन्न होते है तथा क्षायोपशमिकादिभाव उस-उस पोदगलिककर्मके क्षयोपशम आदिके होनेपर ही उत्पन्न होते हैं। इसी तरह जलमें पाई जानेवाली उष्णता भी अग्निके सहयोगसे उत्पन्न होती है। अतः ये सभी धर्म अन्य वस्तु-सापेक्ष आपेक्षिक धर्म कहे गये हैं। वस्तुके स्वतःसिद्ध धर्म वस्तुमें सर्वदा पाये जाते हैं, कभी भी इनका अभाव नहीं होता । अतः इन्हें कथंचित् सद्भूत (सद्भाव प्राप्त) और कथंचित् असद्भूत (अभाव प्राप्त) धर्म माना गया है । जैसे जीवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5