Book Title: Vyavahara Sutra
Author(s): Nina Bohra
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 13
________________ व्यवहार सूत्र ह 429 सूत्र १७ से ३६ के अनुसार शय्यातर का भागीदार यदि भागीदारी वाली वस्तु देवे तो उसे लेना भिक्षु के लिए अकल्पनीय है। बिना भागीदारी वस्तु ले सकता है। यदि बंटवारा हो गया हो तो भी वस्तु ली जा सकती है। सूत्र ३७ से ४० के अनुसार सप्तसप्तमिका (४९ दिन रात में १९६ भिक्षा दत्तियां) अष्ट- अष्टमिका (६४ दिन रात में २८८ भिक्षादत्नियां) नवनवमिका (८१ दिन रात में ४०५ भिक्षा दत्तियां) इन चार प्रतिमाओं का आराधन साधु-साध्वी दोनों ही कर सकते हैं। सूत्र ४१ ४२ में दो भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। स्वमूत्र पीने की छोटी व बड़ी प्रस्रवण प्रतिमा क्रमशः ७ व ८ उपवास से पूर्ण की जाती है। उपवास के दिनों में शुद्ध मूत्र दिन में पीया जा सकता है, रात्रि में नहीं । सूत्र ४३ ४४ में दत्ति का स्वरूप बताया गया है। एक बार में जितना आहार अखण्ड धार से दिया जाए वह एक दत्ति कहलाता है। सूत्र ४५ में तीन प्रकार के खाद्य पदार्थ बताये गए हैं १. फलितोपहृत (मिष्ठान्न, नमकीन आदि) २. शुद्धोपहृत (चने, फूली आदि) ३. संसृष्टोपन ( रोटी, भात, खिचड़ी आदि) सूत्र ४६ में अवगृहीत आहार के तीन प्रकारों का उल्लेख है- १. परोसने के लिए ग्रहण किया २ परोसने के लिए ले जाता हुआ ३. बर्तन में परोसा जाता हुआ। कुछ आचार्य दो प्रकार का भी उल्लेख करते हैं- १ परोसने के लिए ग्रहण किया जाता हुआ २. बर्तन में परोसा हुआ। दशम उद्देशक सूत्र १ व २ में यवमध्य चन्द्रप्रतिमा व वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का वर्णन है। विशिष्ट संहनन वाले ही इन प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं। इनकी समयावधि एक-एक मास होती हैं । इन प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला एक गास तक शरीर के परिकर्म एवं ममत्व से रहित होना है। उसे अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों उपसर्ग एवं परीषह होते हैं। इन प्रतिमाओं में आहार पानी की ( दत्तियों की) हानि-वृद्धि की जाती है। जहां आहार की आकांक्षा करने वाले सभी द्विपद- चतुष्पद आहार ले लौट गए हों, जहां एक ही व्यक्ति आहार कर रहा हो वहीं से आहार लिया जा सकता है। जहां अनेक व्यक्ति भोजन कर रहे हों, गर्भिणी स्त्री हो, बच्चे वाली हो उससे आहार लेना नहीं कल्पता है। जिसके दोनों पैर देहली के अन्दर या बाहर हो उससे आहार लेना भी नहीं कल्पता है। सूत्र ३ में पांच प्रकार के व्यवहार का निरूपण किया गया है- पंचविहे ववहारे पण्णते, तंजहा- आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए । अर्थात् १ आगम व्यवहार २. श्रुतव्यवहार ३ आज्ञा व्यवहार ४. धारणा व्यवहार और ५. जीत व्यवहार इन पांच में से जिस समय जो व्यवहार उपलब्ध हो उस समय उसी से क्रमश: व्यवहार करना चाहिए। जो श्रम निर्ग्रन्थ मध्यरश भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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