Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 10
________________ मंगल भावना भारत में दो संस्कृतियां पल्लवित हुईं-श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति। श्रमण संस्कृति की दो धाराएं हैं-जैन और बौद्ध। जैन संस्कृति व्रात्यों की संस्कृति है। व्रात्य शब्द का मूल है व्रत। व्रत का सम्बन्ध अन्तर्मुखता या अनासक्ति के साथ है। यह जैन संस्कृति का अध्यात्म पक्ष है। उसका दार्शनिक पक्ष भी काफी गंभीर और महत्त्वपूर्ण है। _ 'व्रात्य दर्शन' समणी मंगलप्रज्ञाजी द्वारा लिखित निबन्धों का संकलन है। जैन विश्व भारती, मान्य विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग में व्याख्याता के पद पर कार्यरत समणी मंगलप्रज्ञाजी ने दर्शन का गहरा अध्ययन किया है। इसीलिए वे नय, निक्षेप, अनेकान्त, कर्म आदि दार्शनिक विषयों को अपनी लेखनी का विषय बना पाई हैं। उनके कुछ लेख तुलनात्मक हैं, कुछ विवेचनात्मक हैं और कुछ शोध प्रधान हैं। प्रस्तुत संकलन आम पाठक के बुद्धिगम्य हो पाए या नहीं, प्रबुद्धवर्ग के लिए काफी उपयोगी हो सकता है। परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की पावन प्रेरणा और मंगल मार्गदर्शन में तेरापंथ धर्मसंघ के साधु-साध्वियां एवं समण-समणियां अध्यात्मयात्रा के साथ साहित्य यात्रा में भी निरन्तर गतिशील हैं। समणी मंगलप्रज्ञाजी अपने विषय के गंभीर बोध और सुन्दर प्रस्तुति की दिशा में कुछ और नई खिड़कियां खोले, यही मंगलभावना है। जैन विश्व भारती साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा लाडनूं ११/१२/१६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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