Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 1
________________ पाठ १ उपासना (देव शास्त्र - गुरु पूजन ) श्री जुगलकिशोरजी 'युगल' (एम. ए., साहित्यरत्न, कोटा) स्थापना केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर । उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ।। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । उन देव परम आगम गुरु को, शत शत वंदन शत शत वंदन ।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । जल इन्द्रिय के भोग मधुर - विष सम, लावण्यमयी कंचन काया । यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ।। मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ । अब निर्मल सम्यक्' नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मिथ्यात्वमलविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । चन्दन जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु ! अपने अपने में होती है। अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ती है।। १. केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के द्वारा। २. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूपी मुक्तिमार्ग पर । ३. निरन्तर । ४. मीठा विष । ५. सम्यग्दर्शन । ६. मिथ्यादर्शनरूपी मैल। ( १ )

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