Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ १६ विसुद्धिमग्ग के नाम-ग्रहण से आचार्य यह कहना चाहते हैं कि विसुद्धिमग्ग में जो कुछ भी लिखा या कहा गया है वह स्वकपोलकल्पना नहीं है, अपितु उस समय के प्रामाणिक भिक्षुओं की सरणि के अनुसार बौद्धयोग का यह एक प्रामाणिक विवेचन है। अधिकारी-अतः चित्तविशुद्धि का मार्ग खोजने वाले सभी प्रज्ञावान् योगिजनों को इस विसुद्धिमग्ग ग्रन्थ का आदर करना चाहिये । वे ही इस ग्रन्थ के अध्ययन के वास्तविक अधिकारी है। विसुद्धिमग्ग की विषयवस्तु विसुद्धिमग्ग तीन भाग और तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। पहला भाग शीलस्कन्ध कहलाता है। इसमें, प्रथम दो परिच्छेदों में, शील तथा उसकी प्राप्ति के उपायभूत तेरह धुताङ्गों का विशद वर्णन है। द्वितीय भाग समाधिस्कन्ध कहलाता है। इसमें परिच्छेदक्रम से ११ परिच्छेदों (३ से १३ तक) में कर्मस्थानों की ग्रहणविधि, पृथ्वीकसिण, शेषकसिण, अशुभ कर्मस्थान छह अनुस्मृति, अनुस्मृति कर्मस्थान, ब्रह्मविहार, आरूप्य, समाधि, ऋद्धिविध तथा अभिज्ञाओं का वर्णन है। तीसरा भाग प्रज्ञास्कन्ध है, इसमें (१४ से २३ परिच्छेद तक) क्रमशः स्कन्ध, आयतनः, धातु, इन्द्रिय-सत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद (प्रज्ञाभूमि), दृष्टिविशुद्धि, कांक्षावितरणविशुद्धि, मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि, प्रतिपदाज्ञानदर्शनविशुद्धि, ज्ञानदर्शनविशुद्धि तथा अन्त में प्रज्ञाभावना का माहात्म्य वर्णित है। आगे हम क्रमशः इस ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेद का वर्ण्य विषय विस्तार से लिखेंगे, ताकि पालि न जानने वाले जिज्ञासु जन भी इसका लाभ उठा सकें; अतः यहाँ हम इतना ही कहकर अन्य प्रसङ्ग पर आते हैं। विसुद्धिमग्ग का सम्पादन इस ग्रन्थ के सम्पादन में हमने अधोलिखित संस्करणों, ग्रन्थों तथा टीकाओं का आलम्बन किया है ___१. आचार्य धर्मानन्द कोशाम्बी द्वारा सम्पादित तथा भारतीय विद्याभवन, बम्बई से प्रकाशित (१९४० ई०) विसुद्धिमग्ग। मूल पालि-पाठ के लिये यह सर्वतोभद्र संस्करण है। हमने अपने इस संस्करण में इसी के आधार पर ही प्रायः सर्वत्र पाठ रखा है। २. आचार्य रेवतधम्म द्वारा सम्पादित, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित (सन् १९७२ ई०) विसुद्धिमग्ग (तीन भागों में)। यह संस्करण आचार्य धम्मपाल रचित परमत्थमजूसा नामक विसुद्धिमग्गमहाटीका के साथ प्रकाशित हुआ है। इस के सम्पादक के वर्मा देश का निवासी होने के कारण और बर्मा देश के ग्रन्थों के आधार पर ही सम्पादन करने के कारण इस संस्करण पर बर्मी परम्परा की अधिक छाप है, जिससे विसुद्धिमग्ग में आगत बहुत से शब्द भारतीय परम्परा, जो कि नालन्दा से प्रकाशित पालि त्रिपिटक तथा अट्ठकथा साहित्य में स्पष्ट परिलक्षित होती है, से दूर जा पड़े हैं, अत: पढने-बोलने में कुछ अटपटे लगते हैं; क्योंकि यह ग्रन्थ भारत में पहली बार प्रकाशित हो रहा था, इस दृष्टि का भी सम्पादक को अवश्य ध्यान रखना चाहिये था। इस तरह, शब्दवैमत्य के अतिरिक्त, यह संस्करण भी सुपरिशुद्ध है। अतः ग्रन्थ के सम्पादन में हमें इस संस्करण से भी अत्यधिक सहायता मिली है। "तं मे सक्कच्च भासतो। विसुद्धिकामा सब्बे पि निसामयथ साधवो" ति।

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 322