Book Title: Vipak Sutra Ek Parichay Author(s): Jambukumar Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ विपाक सूत्र : एक परिचय 2391 १०. दूसरों को खुश करने के लिए भी जीव पाप कर्म का सेवन करते हैं. किन्तु कर्मों का उदय होने पर उसका फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। ११ . स्वार्थ एवं भोगलिप्सा सारे संबंध भुला देती है। १२. भोगविलास, इन्द्रिय विषयों के सुख या आनंद जीव के लिए मीठे जहर के समान हैं। १३. व्यक्ति अपने घराणे, सत्ता या धन का अहं भाव करता है, किन्तु तीव्र पापकर्मोदय होने पर कोई त्राणभूत शरणभूत नहीं होता। १४. जीवन को धर्मसंस्कारों, शुभाचरणों से भावित किया जाए तो विकट दुःख की घड़ियों को भी आसानी से सहन कर कर्मबन्ध से बचा जा सकता है। १५. धर्माचरण के अभ्यास एवं चिन्तन से आत्मविश्वास जाग्रत होता है। सुखविषाक इसमें उन आत्माओं का वर्णन हैं, जिन्होंने शुभकर्मों के कारण सुख को प्राप्त किया। इसमें भी १० अध्ययन हैं जिनमें प्रथम अध्ययन सुबाहुकुमार का है! पूर्वभव में सुबाहुकुमार द्वारा निर्दोष भाव से मासखमण के पारणे में भिक्षार्थ आए मुनिराज को खीर का आहार दिया गया था, उसी के फलस्वरूप उसे वर्तमान भव में राजपरिवार में जन्म तथा अनेक सुखोपभोग के साधन उपलब्ध हुए तथा भगवान महावीर का समागम भी प्राप्त हुआ। शेष नौ अध्ययन भी सुबाहुकुमार की तरह ही हैं, केवल नगरी आदि के नाम का अन्तर है, उन्होंने भी पूर्वजन्म के शुभकर्मों के कारण वर्तमान भव में सुखोपभोग प्राप्त किया। इस सुखविपाक से हम निम्नलिखित प्रेरणाएँ ले सकते हैं १. भव्य आत्माएँ अधिक समय तक भोगों में आसक्त नहीं रहती, किन्तु निमित्त मिलते ही भोगों का त्याग कर विरक्त बन जाती हैं। २. यदि हम संयम स्वीकार न कर सकें तो हमें श्रावक के व्रत अवश्य ही ग्रहण करने चाहिए । ३. दीक्षा ग्रहणोपरान्त अपना समय निर्दोष संयमाराधना एवं ज्ञान-ध्यान के चिन्तन-मनन में बिताना चाहिए। ४. सुपात्र दान देने से सम्यक्त्व की प्राप्ति एवं संसार परीन होता है। अतः सुपात्रदान का लक्ष्य रखना चाहिए। ५. मुनिराज के गोचरी पधारने पर शालीनता से विधिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । ६. एषणा के ४२ दोषों एवं गोचरी संबंधी विवेक-व्यवहार का ज्ञान श्रावकों को भी रखना चाहिए। ७. सुपात्र दान देने में त्रैकालिक हर्ष होना चाहिए, यथा दान देने के सुअवसर पर, सुसंयोग प्राप्त होने पर, दान देते वक्त दान देकर निवृत्त हो जाने पर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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