Book Title: Vinay ke Prakar Author(s): Vijayvallabhsuriji Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 7
________________ 1 मूर्तिपूजा में मानने वाले तदाकार - मूर्ति का आधार लेकर उस मूर्ति द्वारा प्रभु का स्मरण करते हैं । जैसी आकृति वाली मूर्ति होती है, उसे देख कर प्राय: उसी मूर्तिमान की याद आती है। मान लीजिए, आपके सामने किसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, भ. कृष्ण, भ. बुद्ध या भ. महावीर आदि की ४-५ मूर्तियाँ लाकर रख दीं। आप मूर्ति की आकृति देख कर तुरन्त पहिचान लेते हैं कि यह अमुक की मूर्ति है । शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि सहित आकृति (मूर्ति) को देखते ही आप कह उठते हैं यह 'विष्णु' की मूर्ति है । मयूरपिच्छ का मुकुट और हाथ में बांसुरी वाली आकृति देखते ही आप को श्रीकृष्ण का स्मरण हो जाता है । धनुष्यबाण देखते ही आप पहचान जाते हैं कि यह मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की मूर्ति है । पद्मासनस्थ या अर्द्धपद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा में लीन मूर्ति या ध्यानावस्था में खड़ी हुई मूर्ति को देख कर अपने संस्कारानुसार आप पहचान जाते हैं कि यह जैन तीर्थंकर की मूर्ति है । इसी प्रकार जैन तीर्थंकर - मूर्ति जैसी आकृति हो, लेकिन उस पर वस्त्र या यज्ञोपवीत चिह्न खुदा हो तो जिसे मालूम होता है, वह झटपट कह देता है कि यह बुद्धभगवान् की मूर्ति है। इस प्रकार उस-उस आकृति वाली मूर्ति को देख कर उस उस मूर्तिमान का स्मरण किया जा सकता है । अतः तीर्थंकर-विनय वास्तव में तो तभी सिद्ध होगा जब हम तीर्थंकर के द्वारा चलाए गए धर्म को जीवन में उतारेंगे; गुणों को अपनाएंगे और संकटादि के समय भी अपने धर्म पर डटे रहेंगे । सिद्ध-विनय गत चौबीसी में जितने भी तीर्थंकर थे, वे भी सिद्ध हो गए और दूसरे भी सामान्य केवली या वीतराग-पुरुष अपने अन्तिम देह और आठों कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध होते हैं । वे पूर्णमुक्त (विदेहमुक्त, अशरीरी) हो जाते हैं। ऐसे मुक्त पुरुष केवल जैनधर्म-संघ द्वारा ही होते हों, ऐसी बात नहीं है । जैनधर्म गुणपूजक होने से वह किसी भी धर्म संघ, देश, वेष, लिंग, ज्ञाति, या किसी भी प्रकार से, किसी से भी बोध - प्राप्त साधक - साधिका को मुक्ति का अधिकारी मानता है । तीर्थ-अतीर्थ आदि १५ प्रकारों में से किसी भी प्रकार से सिद्ध यानी निरंजन- निराकार, परमात्मा हो जाने के बाद वह उनमें कोई भेद नहीं करता। क्योंकि वहाँ तो नाम, रूप, देह, गेह, मोह-माया, I - या सब छूट जाते हैं। केवल शुद्ध आत्मा ज्योति में ज्योतिस्वरूप हो कर रहती है। ऐसे निरंजन - निराकार सिद्ध हो जाने पर वे पुन: संसार में नहीं आते। जैसे जैन - साधनाओं में उनकी स्तुति के समय कहा जाता है— “सिवमयलमरुवमणंतक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं ।” २१ विनय के प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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