Book Title: Vinay ke Prakar
Author(s): Vijayvallabhsuriji
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 13
________________ भूल की राह पर तुम हो, आनन्द नहीं । आनन्द का कथन सत्य है । उसमें शंका को जरा भी स्थान नहीं । तुम प्रायश्चित के भागी हो । जाओ, आनन्द के पास जाकर मिच्छामि दुक्कडं दो ।” सच्चा और विनीत साधक सत्य को पाकर क्रुद्ध नहीं: हर्षित होता है । और सच्चा गुरु अपने शिष्य के दोष को दबाता - छिपाता नहीं। वह लिहाज नहीं रखता । भ. महावीर ने यह लिहाज नहीं किया कि यह मेरा पट्टशिष्य है, गणधर है । गणधर गौतम तत्क्षण ही आनन्द के पास आए और अपनी भूल के लिए “मिच्छामि दुक्कडं” देकर क्षमायाचना की । गणधर गौतम और आनन्द दोनों ही सरलता और नम्रता के मधुर क्षणों में परस्पर क्षमायाचना कर रहे थे । १४००० श्रमणों के अधिनायक गणधर गौतम में कितनी नम्रता थी ? उनके मन में सत्य के प्रति कितना आदर था ? सत्य के सामने वे मानापमान को आड़े नहीं लाते थे । इस प्रकार गणधर गौतम और आनन्द का यह पावनप्रसंग संघ-विनय का कितना जीता-जागता सन्देश है ? क्रिया- विनय I शुद्ध क्रिया अथवा शुद्धिपूर्वक क्रिया करने वालों का विनय करना क्रिया- विनय है इसके बदले कई सूत्रों में 'चारित्रविनय' भी बताया गया है । क्रिया या चारित्र के प्रति विनय का रहस्य यही है कि अपनी आत्मा की वफादारीपूर्वक जो क्रिया या चारित्र ठीक व युगानुकूल, सत्य-अहिंसा में साधक, विकासवर्द्धक समझा जाय उसके प्रति सतंतनिष्ठा, श्रद्धा और आदरभाव रख कर पालन करे । और जो भी साधक इस प्रकार से क्रियावान या चारित्रवान हो उसके प्रति आदर, श्रद्धा व बहुमान रखे । परन्तु जो क्रिया दम्भवर्द्धक हो, विकासबाधक हो, युगबाह्य हो, केवल दिखावे के लिए ही जिसका अस्तित्व हो, उसका बोझ व्यर्थ ही बिना मन से ढोए जाना क्रिया - विनय नहीं है । न चारित्र के नाम पर अन्ध-विश्वास, चमत्कार, ज्योतिषबाजी या झूठे बहमों के चक्कर में जनता को फंसाना ही चारित्रविनय है। बल्कि जो साधक मौलिक-मर्यादाओं का दृढ़तापूर्वक पालन करता हो, उस पवित्रचारित्री पुरुष का विनय करना ही चारित्रविनय है I धर्म-विनय सत्य, अहिंसा, न्याय, ब्रह्मचर्य, ईमानदारी, नीति, अस्तेय, अपरिग्रहवृत्ति; आदि शुद्ध और व्यापक सद्धर्म के अंगों का अपनी-अपनी मर्यदा में रह कर वफादारीपूर्वक पालन करना; धर्म पर अटल श्रद्धा रखना; संकट भय या प्रलोभन आने पर भी धर्म के प्रति आदर न छोड़ना; विचलित न होना; धर्म की मखौल उड़ा कर जनता को तथा स्वयं को धर्मश्रद्धाविहीन न बनाना; बल्कि धर्म विनय के प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only २७ www.jainelibrary.org

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