Book Title: Vikas ka Mukhya Sadhan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ विकासका मुख्य साधन ८७ समझा है उसके ऊपर, या जिसको हम अपना नहीं समझते, जिस राष्ट्रको हम निज राष्ट्र नहीं समझते उसपर हमारी अपेक्षा भी अधिक और प्रचंड भय आ पड़ा, तो हमारी भय-त्राण-शक्ति हमें कर्तव्य-पालनमें कभी प्रेरित नहीं करेगी, चाहे भयसे बचने बचानेकी हममें कितनी ही शक्ति क्यों न हो। वह शक्ति संकुचित भावों से प्रकट हुई है तो जरूरत होनेपर भी वह काम न आवेगी और जहाँ जरूरत न होगी या कम जरूरत होगी वहाँ खर्च होगी। अभी अभी हमने देखा है कि यूरोपके और दूसरे राष्ट्रोंने भयसे बचने और बचानेकी निस्सीम शक्ति रखते हुए भी भयत्रस्त एबीसीनियाकी हजार प्रार्थना करनेपर भी कुछ भी मदद न की । इस तरह भयजनित कर्त्तव्य-पालन अधूरा होता हैं और बहुधा विपरीत भी होता है । मोह-कोटिमें गिने जानेवाले सभी भावोंकी एक ही जैसी अवस्था है, वे भाव बिलकुल अधूरे, अस्थिर और मलिन होते हैं। जीवन-शक्तिका यथार्थ अनुभव ही दूसरे प्रकारका भाव है जो न तो उदय होनेपर चलित या नष्ट होता है, न मर्यादित या संकुचित होता है और न मलिन होता है। प्रभ होता है कि जीवन-शक्तिके यथार्थ अनुभवमें ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिससे वह सदा स्थिर व्यापक और शुद्ध ही बना रहता है ? इसका उत्तर पानेके लिए हमें जीवन-शक्तिके स्वरूपपर थोड़ा-सा विचार करना होगा। हम अपने आप सोचें और देखें कि जीवन-शक्ति क्या वस्तु है। कोई भी समझदार श्वासोच्छास या प्राणको जीवनकी मूलाधार शक्ति नहीं मान सकता, क्योंकि कभी कभी ध्यानकी विशिष्ट अवस्थामें प्राण संचारके चालू न रहनेपर भी जीवन बना रहता है। इससे मानना पड़ता है कि प्राणसंचाररूप जीवनकी प्रेरक या आधारभूत शक्ति कोई और ही है। अभी तकके सभी आध्यात्मिक सूक्ष्म अनुभवियोंने उस आधारभूत शक्तिको चेतना कहा है। चेतना एक ऐसी स्थिर और प्रकाशमान शक्ति है जो दैहिक, मानसिक और ऐंद्रिक आदि सभी कार्योपर ज्ञानका, परिज्ञानका प्रकाश अनवरत डालती रहती है। इन्द्रियाँ कुछ भी प्रवृत्ति क्यों न करें, मन कहीं भी गति क्यों न करे, देह किसी भी व्यापारका क्यों न आचरण करे, पर उस सबका सतत भान किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9