Book Title: Vikas ka Mukhya Sadhan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 4
________________ विकासका मुख्य साधन है तब वह कभी रुकती नहीं । सोते जागते सतत वेगवती नदीके प्रवाहकी तरह अपने पथपर काम करती रहती है । तब क्षिप्त या मूढ़ भाग मनमें फटकने ही नहीं पाता। तब मनमें निष्क्रियता या कुटिलताका संचार सम्भव ही नहीं । जवाबदेहीकी यही संजीवनी शक्ति है, जिसकी बदौलत वह अन्य सब साधनोंपर आधिपत्य करती है और पामरसे पामर, गरीबसे गरीब, दुर्बलसे दुर्बल और तुच्छसे तुच्छ समझे जानेवाले कुल या परिवारमें पैदा हुए व्यक्तिको सन्त, महन्त, महात्मा, अवतार तक बना देती है। गरज यह कि मानुषिक विकासका आधार एकमात्र जवाबदेही है और वह किसी एक भावसे संचालित नहीं होती। अस्थिर संकुचित या क्षुद्र भावोंमेंसे भी जवाबदेही प्रवृत्त होती है । मोह, स्नेह, भय, लोभ आदि भाव पहले प्रकारके हैं और जीवन-शक्तिका यथार्थानुभव दूसरे प्रकारका भाव है । अब हमें देखना होगा कि उक्त दो प्रकारके भावोंमें परस्पर क्या अन्तर है और पहले प्रकारके भावोंकी अपेक्षा दूसरे प्रकारके भावोंमें अगर श्रेष्ठता हैं तो वह किस सबबसे है १ अगर यह विचार स्पष्ट हो जाय तो फिर उक्त दोनों प्रकारके भावोंपर आश्रित रहनेवाली जवाबदेहियोंका भी अन्तर तथा श्रेष्ठताकनिष्ठता ध्यानमें आ जायगी । मोहमें रसानुभूति है, सुख-संवेदन भी है । पर वह इतना परिमित और इतना अस्थिर होता है कि उसके आदि, मध्य और अन्तमें ही नहीं उसके प्रत्येक अंशमें शंका, दुःख और चिन्ताका भाव भरा रहता है जिसके कारण घड़ी के लोलककी तरह वह मनुष्यके चित्तको अस्थिर बनाये रखता है । मान लीजिए कि कोई युवक अपने प्रेम-पात्रके प्रति स्थूल मोहवश बहुत ही दत्तचित्त रहता है, उसके प्रति कर्तव्य-पालनमें कोई त्रुटि नहीं करता, उससे उसे रसानुभव और सुख-संवेदन भी होता है । फिर भी बारीकीसे परी. क्षण किया जाय, तो मालूम होगा कि वह स्थूल मोह अगर सौन्दर्य या भोगलालसासे पैदा हुआ है, तो न जाने वह किस क्षण नष्ट हो जायगा, घट जायगा या अन्य रूपमें परिणत हो जायगा । जिस क्षण युवक या युवतीको पहले प्रेम-पात्रकी अपेक्षा दूसरा पात्र अधिक सुन्दर, अधिक समृद्ध, अधिक बलवान् या अधिक अनुकूल मिल जायगा, उसी क्षण उसका चित्त प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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