Book Title: Vijaymansuri krut Pattak Author(s): Mahabodhivijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ आवश्यकनियुक्तिनें अनुसार सुविहित वृद्ध गीतार्थने योगि पाक्खी चोमासी संवत्सरीखामणां करवा ज । अन्यथा सामान्य शुद्धि न थाई पडिकमj पिण अप्रमाण थाई । जे माटि व्यवहारसूत्रादिका अनुसारि आचार्यादिकने अयोगि स्थापनाचार्य आगलि आलोचना प्रमाण होइ ।।११ ॥ अष्टकवृत्ति विशेषावश्यकभाष्यादिकने अनुसारि वर्तमान पंचाचार्यमांहि थापनाचार्यनइ विषई मुख्यवृत्तिं गछाचार्यनी स्थापना संभविइ छइ पछे गीतार्थ कहे ते प्रमाण ॥१२ ।। श्रीसोमसुंदरसूरि प्रसादित सामाचारी कुलकने अनुसारि तपागछीय सुविहित साधुइ ४६ नियम गीतार्थ शाखि पडवजवा ॥१३ ।। श्रुतव्यवहारई जीतव्यवहारई लिहा पासिं संयतें उत्सर्गथी पुस्तक लिखाववू नहीं ! कारणें लिखावें तो श्रीसोमसुंदरसूरि श्रीहीरविजयप्रसादित जल्पनें अनुसारि ५०० अथवा १००० गाथा लगई गुरु आदिक आज्ञाई अन्यथा गुरुगच्छनिश्रित थाइं ते पुस्तक गुर्वादिकनी आज्ञा विना वांचq भणवू न कल्पे ॥१४ ॥ श्रुत जीत ऽगीतार्थसंयत पुस्तक क्रय विक्रे न ल्ये कारणि लेवू पडे तो गुरुनी आज्ञाई गृहस्थ पासि लेवरावइ ॥१५ ॥ तथा श्रुतव्य. गुरुनी आज्ञा विना ऽगीतार्थ अपवाद सेवे नहीं ।।१७ ॥ जीतकल्पादिकनइं अनुसारि ऋण आपी विशुद्ध न थाई तिहां सूधी देवाधि द्रव्य भक्षक साथि --- आहारादिक परिचय धर्मार्थी साधुई श्रावकें न करवो। अने ते दोषनी विपरीत [थापना न करवी ॥१७॥ आवश्यकभाष्यादिकनें अनुसारि पोतानी टोलीना गृहस्थोने - - आवर्जवा निमित्ते पूर्वोक्त दोष सेवी जे गीतार्थ शाखि आलोयणा न ल्ये आप सुद्ध परुपक करी माने ते भूमीगत मिथ्यात्वी जाणिवा । तेहर्नु उ .. --दर्शन न करवं ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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