Book Title: Vijaymansuri krut Pattak Author(s): Mahabodhivijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ 46 तथा निशीथ नंदिचूर्णि आवश्यकनिर्युक्ति अनुसारि ऋद्धिगारवने तथाविध पदस्थगीतार्थनी आज्ञा लोपी पूर्वोक्तविधि विना योग वही सभा वक्ष आचारांगादिक वांचे ते अरिहंतादिकनो, द्वादशांगीनो प्रत्यनीक यथाछंदो कहि जे माटि तीर्थंकर अदत्त गुरुअदत्तादिकनो दोष घणां संभवे छे ॥५॥ श्रुतव्यवहारखं पूर्वोक्त जीतव्यवहारइं वर्त्तमान गच्छनायकनी आज्ञा विना गीतार्थे पण भव्यनें दीक्षा न देवी । कदाचित गछाचार्य देशांतरई होइ तो वेषपालये करावी चार अ.नी तुलना कराववा पिण योगपूर्वक सिद्धान्त न भणाववो || ६ || तथा आचारदिनकर प्रश्नोत्तरसमुच्चयादिकनई अनुसारि हैमव्याकरण द्वयाश्रयादिकसाहित्य उत्तराध्ययनादि सिद्धान्त भणाववा असमर्थ एहवा पन्यास गणेश बे उपरांत शिष्य निश्राइं न राखई आचार्य पिण अधिकनी आज्ञा नापें । तपागछमांहि आचार्यनी ज दीक्षा होई अने सुविहित गछांतरें आचार्यादिक ५ माहि एक नी दीक्षा होइ । श्रुतव्यवहारि तो गीतार्थने ज दीक्षानी अनुज्ञा छै ॥७ ॥ तथा श्री सोमसुंदर प्रसादित जल्पनें अनुसारि तथा महानिशीथ आचारांगदिकनें अनुसारि अगीतार्थसंयत विशेषगुणवंत गछने अयोगि शिथल सुविहितगछनी आज्ञादि स्वेछाई प्रवर्ते ते सामाचारीना प्रत्यनीक जाणिवा ॥८ ॥ उपदेशमाला दशाश्रुतस्कंध निशीथभाष्य ज्ञातादिकनें अनुसारि गुरुनी आज्ञाई चोमासुं रहे विहारादिक करे अन्यथा सामाचारी माथा सूनी मार्टि गुरु अदत्तादिक दोष संभवे जे माटिं व्यवहारभाष्यादिकने अनुसारिं स्वे देशानुगत वाणिज्यादिक कर्म साक्षि राजानी परि पंचाचारनो साक्षि सदाचार्य छ । अत एव छ मास उपरांत आचार्य शून्य गछनी मर्यादा अप्रमाण थाय एहव वृद्धवाद संभलाइ छे ॥ ९ ॥ कल्पभाष्य दशवैकालिक भगवती पंचाशक गछाचारपइन्नादिकने अनुसारि स्वतः परतः शुद्ध प्ररूपक ते सद्गुरु जाणिवो ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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