Book Title: Vidyarthi Jivan Ek Navankur
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 5
________________ उसे अपनी इच्छा के अनुरूप, जैसा चाहे वैसा बना सकता है। किन्तु, वहीं घड़ा जब आपाक में पक जाता है, तब कुम्हार की कोई ताकत नहीं कि वह उसे छोटा या बड़ा बना सके, उसकी आकृति में कुछ भी अभीष्ट परिवर्तन कर सके। यही बात छात्रों के सम्बन्ध में भी है। माता-पिता चाहें तो प्रारम्भ से ही बालकों को सुन्दर शिक्षा और सुसंस्कृत वातावरण में रखकर उन्हें राष्ट्र का होनहार नागरिक बना सकते हैं। वे अपने स्नेह और आचरण की पवित्र धारा से देश के नौनिहाल बच्चों का वर्तमान एवं भावी जीवन सुधार सकते हैं। बालक माता-पिता के हाथ का खिलौना होता है। वे चाहे तो उसे बिगाड़ सकते हैं और चाहें तो सुधार सकते हैं। देश के सपूतों को बनाना उन्हीं के हाथ में है। वर्तमान विषाक्त वातावरण, और हमारा दायित्व : दुर्भाग्य से आज इस देश में चारों ओर घृणा, विद्वेष, छल और पाखण्ड भरा हुआ है। माता-पिता कहलाने वालों में भी दुर्गुण भरे पड़े हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने बच्चों में सुन्दर संस्कारों काबीजारोपण किस प्रकार कर सकते हैं ? प्रत्येक माता-पिता को सोचना चाहिए कि उनकी जिम्मेदारी केवल सन्तान को उत्पन्न करने और पालन-पोषण करने मात्र में ही पूर्ण नहीं हो जाती है। जब तक सन्तान को, सुशिक्षित एवं सुसंकार-सम्पन्न नहीं बना दिया जाता, तब तक वह पूरी नहीं होती। आज, जबकि हमारे देश का नैतिक स्तर नीचा हो रहा है, छात्रों के जीवन का सही निर्माण करने की बड़ी आवश्यकता है। छात्रों का जीवन-निर्माण न सिर्फ घर पर होता है, और न केवल पाठशाला में ही। बालक घर में संस्कार ग्रहण करता है और पाठशाला में शिक्षा । दोनों उसके जीवन-निर्माण के स्थल है। अतएव घर और पाठशाला, दोनों ही जगह परस्पर यथोचित सहयोग स्थापित होना चाहिए और दोनों ही जगह के वायु-मण्डल को एक-दूसरे का पूरक और पृष्ठ-पोषक होना चाहिए। आज, घर और पाठशाला में कोई सम्पर्क नहीं है। अध्यापक विद्यार्थी के घर से एकदम अपरिचित रहता है। उसे बालक के घर के वातावरण की कल्पना तक नहीं होती। और, माता-पिता प्रायः पाठशाला से अनभिज्ञ होते हैं। पाठशाला में जाकर बालक क्या सीखता है और क्या करता है, प्रायः माँ-बाप इस पर ध्यान नहीं देते हैं। बालक स्कूल चला गया और माता-पिता को छुट्टी मिल गई। फिर वह वहाँ जाकर कुछ करे या न करे, और कुछ सीखे या न सीखे, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। यह उपेक्षा-बुद्धि बालक के जीवननिर्माण में बहुत घातक होती है। सत्य और असत्य की विसंगति का कारण : घर और पाठशाला के वायुमंडल में भी प्रायः विरूपता देखी जाती है। पाठशाला में बालक नीति की शिक्षा लेता है और सच्चाई का पाठ पढ़ कर पाता है। वह जब घर प्राता है या दुकान पर जाता है, तो वहाँ वह असत्य का साम्राज्य पाता है। बात-बात में माता-पिता असत्य का प्रयोग करते हैं। शिक्षक सत्य बोलने की शिक्षा देता है और मातापिता अपने व्यवहार से उसे असत्य बोलने का सबक सिखलाते हैं। इस तरह से परस्पर विरोधी वातावरण में पड़ कर बालक दिग्भ्रान्त हो जाता है। वह निर्णय नहीं कर पाता कि मुझे शिक्षक के बताए मार्ग पर चलना चाहिए अथवा माता-पिता द्वारा प्रशित पथ पर। कुछ समय तक उसके अन्तःकरण में संघर्ष चलता रहता है और फिर वह एक निष्कर्ष निकाल लेता है। निष्कर्ष यह कि वैसे तो सत्य ही उचित है, किन्तु जीवन व्यवहार में प्रयोग असत्य का ही करना चाहिए। इस प्रकार का निष्कर्ष निकाल कर वह छल-कपट और धूर्तता सीख जाता है। उसके जीवन में विरूपता आ जाती है। वह कहता है, नीति की बात, परन्तु चलता है, अनीति की राह पर । विद्यार्थी जीवन : एक नव-अंकुर ३७५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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