Book Title: Vidyarthi Jivan Ek Navankur Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 1
________________ विद्यार्थी जीवन : एक नव अंकुर विद्यार्थी जीवन एक बहुत ही विस्तृत एवं व्यापक जीवन का पर्याय है। इसकी कोई सीमाएँ - परिसीमाएँ नहीं हैं । जिज्ञासु-मानव जीवन के जिस अंतराल में जीवन की तैयारी की शिक्षा —— प्रध्ययन, मनन, चिंतन एवं अपनी अनुभूतियों द्वारा ग्रहण करता है, हम इसे ही विद्यार्थी का जीवन किंवा छात्र जीवन कहते हैं । सिद्धान्त की बात यह है कि छात्रजीवन का सम्बन्ध किसी आयु -विशेष के साथ नहीं है । यह भी नहीं है कि जो किसी पाठशाला -- विद्यालय या महाविद्यालय में नियमित रूप से पढ़ते हैं, वे ही छात्र कहलाएँ । मैं समझता हूँ कि जिसमें जिज्ञासा वृत्ति अंतर्हित है, जिसे कुछ भी नूतन ज्ञान अर्जित करने की इच्छा है, वह मनुष्यमात्र विद्यार्थी है, चाहे वह किसी भी आयु की हो अथवा किसी भी परिस्थिति में रहता हो। और यह जिज्ञासा की वृत्ति किसमें नहीं होती ? जिसमें चेतना है, जीवन है, उसमें जिज्ञासा अवश्य ही होती है । इस दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य, जन्म से लेकर मृत्यु की अन्तिम घड़ी तक विद्यार्थी ही बना रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो बड़े-बूढ़े हैं, जिन्होंने अपने जीवन में सत्य का प्रकाश प्राप्त कर लिया है और जिनकी चेतना पूर्णता पर पहुँच चुकी है, आगम की वाणी में जिन्होंने सर्वज्ञता पा ली है, वे विद्यार्थी न रह कर विद्याधिपति हो जाते हैं । उन्हें श्रागम में 'स्नातक' कहते हैं । और, जो अभी तक शास्त्रोक्त इस स्नातक अवस्था की पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाए हैं, भले ही वे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक ही क्यों न हो चुके हों, वास्तव में विद्यार्थी ही हैं। इस दृष्टि से मनुष्यमात्र विद्यार्थी है। और उसे विद्यार्थी बनकर ही रहना चाहिए । इसी में उसके जीवन का सही विकास निहित है । मनुष्य मात्र ही विद्यार्थी : अपने जीवन में मनुष्य विद्यार्थी ही है और साथ ही मनुष्य मात्र ही विद्यार्थी है । आप जानते हैं कि पाठशालाएं नरक और स्वर्ग में नहीं हैं । और, पशुयोनि में हजारों-लाखों जातियाँ होने पर भी उनके लिए कोई स्कूल नहीं खोले गए हैं। आमतौर पर पशुओं में तत्त्व के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं होती और न ही जीवन को समझने की कोई लगन देखी जाती है । तो एक तरफ सारा संसार है और दूसरी तरफ अकेला मनुष्य है । जब हम इस विराट संसार की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो उसके विकास पर सब जगह मनुष्य की छाप लगी हुई स्पष्ट दिखाई देती है और जान पड़ता है कि एकमात्र मनुष्य ने ही संसार को यह विराटता प्रदान की है । संसार की विराटता और जिज्ञासा : मनुष्य ने संसार को जो विराट रूप प्रदान किया, उसके मूल में उसकी जिज्ञासा ही प्रधान रही है। ऐसी प्रबल जिज्ञासा मनुष्य में ही पाई जाती है, अतएव विद्यार्थी का पद भी मनुष्य को ही मिला है। देवता भले कितनी ही ऊँचाई पर क्यों न रहते हों, उनको भी विद्यार्थी का महिमावान पद प्राप्त नहीं है । यह तो मनुष्य ही है, जो विचार का प्रकाश लेने को आगे बढ़ा है और जो अपने मस्तिष्क के दरवाजे खोलकर सब ओर प्रकाश लेने और देने के लिए आगे आया है । विद्यार्थी जीवन : एक नव अंकुर Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७१ www.jainelibrary.org.Page Navigation
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