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श्री शान्तिनाथ विधान (श्री ताराचंद्र जी रिवाड़ी कृत)
प्रस्तावना
अरिहंत जिनेश्वर की अनुपम छवि, शान्तिसुधा धरके उरमें। शिवनाथ निरंजन कर्मजयी बन, जाय बसे प्रभु शिवपुर में । 1 । मुनिनाथ तपोनिधि, सूरि सुधी, तपलीन रहें नितही वन में। श्रुत-ज्ञान-सुधा बरसावत हैं, गुरु पाठकवृन्द सुभव्यन में।2। रत्नत्रय की चिर ज्योति जगे, तप-ज्वाल में कर्मविनाश करें ।। भव-भोग-शरीर विरक्त सदा, इन्द्रियसुख की नहिं आश करें। 31
गन्धकुटी में विरजित नाथ हैं, दिव्यध्वनि उनकी जौ खिरी। गणराजने गूंथ के ज्ञान-प्रसून की, द्वादश अंग की माल वरी।4।
मंगलमय लोक जिनोत्तम हैं, मंगलमय सिद्ध सनातन हैं मंगलमय सूरि सुबृत धनी, मंगलमय पाठक के गन हैं। 5 ।
मंगलमय हैं साधु जन, ज्ञान सुधारस लीन। जिन प्रणीत वर धर्म है, मंगलमय स्वाधीन |6|
सब द्वीपों के मध्य में, जम्बूद्वीप अनूप लवण नीर-निधि सर्वतः, जहाँ खातिका रूप। 7। पीछे धातिक द्वीप है, द्वितिय द्वीप श्रुतिसार । कालोदधि है सर्वतः परिखाके उनहार।8।
पुष्कर नामक द्वीप है, कालोदधि के पार । ताको आधा भाग ले, ढाई द्वीप सम्हार|9|
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