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विधान प्रारम्भ
स्थापना
शान्तिप्रभो ! हे शान्तिप्रभो, मेरे मन मन्दिर में आओ। अघवर्ग-विनाशन-हेतु प्रभो, निज शान्त छवि शुभ दर्शाओ।। 1 ।। कर्मो के बन्धन खुलते हैं, प्रभु नाम तुम्हारा जपने से। भव-भोग-शरीर नश्वर तब, क्षणभंगुर लगते सपने से॥2॥
नरजन्म सफल यह होता है, जब ध्यान तुम्हारा आता है। निजरूप में लीन हुआ, प्रभु ! वह, भव-सागर से तर जाता है|| 3 || ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! पंचम चक्रेश्वर ! श्रीशान्तिनाथ भगवन अत्रावतर अवतर सम्वौषट् आह्वाननम्।
ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! द्वादशकामदेव ! श्री शान्तिनाथ भगवान ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! षोढष तीर्थंकर ! श्रीशान्तिनाथ भगवन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
अष्टकम्
स्वर्णकलश में जल ले जो नित, जिनपद पूजन करते हैं।
वे निश्चय ही राजतिलक की, अतुल सम्पदा वरते हैं।।
ऊँ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः जगदापद्विनाशनाय श्री शान्तिनाथाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
केशर चन्दन अरु कपूर से, श्रीजिन चरणों का अर्चन।
करते हैं जो भव्य स्वर्ग में, सुरभित होते उनके तन।।
ॐ भ्रां भ्रीं भूँ भ्रौं भ्रः जगदापद्विनाशनाय श्री शान्तिनाथाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा।
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