Book Title: Vichar Kanika Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 2
________________ विचार-कणिका 7 आधारसे धर्ममें अन्तर होता है । इतना ही नहीं किन्तु धर्माचरणमें अधिक पुरुषार्थ अपेक्षित होनेसे वह गतिकी दृष्टिसे तत्त्वज्ञानसे पिछड़ भी जाता है । फिर भी यदि दोनोंकी दिशा ही मूलसे भिन्न हो तो तत्त्वज्ञान कितना भी गहरा तथा सच्चा क्यों न हो, धर्म उसके प्रकाशसे वंचित ही रहेगा और फलस्वरूप मानवताका विकास अवरुद्ध हो जायगा । तत्त्वज्ञानकी शुद्धि, वृद्धि और परिपाक जीवन में धर्मकी परिणतिके बिना असंभव है । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के आलमनसे शून्य धर्म जडता और वहमसे मुक्त नहीं हो सकता । अतएव दोनोंमें दिशा-भेद होना घातक है । इस वस्तुको एकाध ऐतिहासिक दृष्टान्तके द्वारा समझना सरल होगा । भारतीय तत्त्वज्ञानके तीन युग स्पष्ट हैं । प्रथम युग आत्मवैषम्य के सिद्धान्तका दूसरा आत्मसमानताके सिद्धान्तका, और तीसरा आत्माद्वैत के सिद्धान्तका । प्रथम सिद्धांत के अनुसार माना गया था कि प्रत्येक जीव मूलतः समान नहीं है । प्रत्येक स्वकर्माधीन है और प्रत्येक कर्म विषम और प्रायः विरुद्ध होनेसे तदनुसार ही जीवकी स्थिति और उसका विकास संभव है । इसी मान्यता के आधारपर ब्राह्मण-कालके जन्मसिद्ध धर्म और संस्कार निश्चित हुए हैं। इसमें किसी एक वर्गका अधिकारी अपनी कक्षा में रह कर ही विकास कर सकता है, उस कक्षासे बाहर जाकर वर्णाश्रमधर्मका आचरण नहीं कर सकता । इन्द्रपद या राज्यपदकी प्राप्ति के लिए अमुक धर्मका आचरण आवश्यक है किन्तु उसका हर कोई आचरण नहीं कर नहीं सकता और न करा सकता है । इसका अर्थ यही है कि कर्मकृत वैषम्य स्वाभाविक हैं और जीवगत समानता होनेपर भी वह व्यवहार्य नहीं है । आत्मसमानता के दूसरे सिद्धान्तानुसार घटित आचरण इससे बिल्कुल भिन्न है । उसमें किसी भी अधिकारी या जिज्ञासुको किसी भी प्रकारके कर्म संस्कार के द्वारा अपना विकास करनेका स्वातंत्र्य है । उसमें आत्मौपम्यमूलक अहिंसाप्रधान यम-नियमोंके आचरणपर ही भार दिया जाता है । उसमें कर्मकृत वैषम्यको अवगणना नहीं है किन्तु समानतासिद्धि के प्रयत्नोंके द्वारा उसके निवारणपर ही भार दिया जाता है । आत्माद्वैतका सिद्धान्त तो समानता के सिद्धान्त से भी एक कदम आगे बढ़ गया है । उसमें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं है । उस अद्वैतमें तो समानताका व्यक्तिभेद भी लुप्त हो जाता है अतएव उस सिद्धान्त में कर्मसंस्कारजन्य वैषभ्यको सिर्फ निवारण Jain Education International For Private & Personal Use Only १६५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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