Book Title: Vichar Kanika Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 5
________________ १६८ धर्म और समाज न करे, तो वह वैसा परिणाम प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म-फल नियमकी इस आत्माका सामूहिक दृष्टिसे कर्म-फलको घटाने पर भी लोप नहीं होता। सिर्फ वह वैयक्तिक सीमाके बन्धनसे मुक्त होकर जीवन व्यवहारकी घटनामें सहायक होता है। आत्म-समानताके सिद्धान्तानुसार या आत्माद्वैतके सिद्धान्तानुसार किसी भी प्रकारसे सोचें, एक बात सुनिश्चित है कि कोई भी व्यक्ति समूहसे •सर्वथा भिन्न नहीं है, रह भी नहीं सकता । एक व्यक्तिके जीवन-इतिहासके सुदीर्घ पटपर दृष्टि डालकर सोचें; तो शीघ्र स्पष्ट हो जायगा कि उसमें पूर्वकालके एकत्र हुए और वर्तमानके नये संस्कारोंमें साक्षात या परंपरासे अन्य असंख्य व्यक्तियोंके संस्कार भी कारण हैं और वह व्यक्ति भी जिन संस्कारोंका निर्माण करता है वे सिर्फ उसी तक मर्यादित नहीं रहते किन्तु अन्य व्यक्तियोंमें भी साक्षात् या परंपरासे संक्रान्त होते रहते हैं । वस्तुतः समूह या समष्टि यह व्यक्ति या व्यष्टिका पूर्ण जोड़ है। ___ यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म और फलके लिए पूर्ण रूपसे उत्तरदायी हो और अन्य व्यक्तियोंसे अत्यन्त स्वतन्त्र होनेसे उसके श्रेय अश्रेयका विचार उसीके अधीन हो, तो फिर सामूहिक जीवनका क्या अर्थ होगा ? क्योंकि बिल्कुल भिन्न, स्वतन्त्र और पारस्परिक असरसे मुक्त व्यक्तियोंका सामूहिक जीवनमें प्रवेश तो केवल आकस्मिक घटना ही माननी होगी । यदि सामूहिक जीवनसे वैयक्तिक जीवन अत्यन्त भिन्न संभवित नहीं है ऐसा अनुभवसे सिद्ध है, तो तत्वज्ञान भी उसी अनुभवके आधारपर प्रतिपादन करता है कि व्यक्ति व्यक्तिके बीच कितना ही भेद क्यों न दीखता हो फिर भी प्रत्येक व्यक्ति किसी ऐसे एक जीवनसूत्रसे ओतप्रोत है कि उसीके द्वारा वे सभी व्यक्ति आपसमें संकलित है । यदि वस्तुस्थिति ऐसी है तो कर्मफलके नियमका भी विचार और उसकी घटना इसी दृष्टि से होनी चाहिए । अब तक आध्यात्मिक श्रेयका विचार भी प्रत्येक संप्रदायमें वैयक्तिक दृष्टिसे ही हुआ है। च्यावहारिक लाभालाभका विचार भी उसी दृष्टिसे हुआ है । इसके कारण जिस सामूहिक जीवनके बिना हमारा काम नहीं चलता, उसको लक्ष्य करके श्रेय या प्रेयका मौलिक विचार या आचारका निर्माण ही नहीं हो पाया है। सामूहिक कल्याणार्थ बनाई जानेवाली योजनाएँ इसी लिए या तो पद पद पर भग्न हो जाती हैं या निर्बल होकर खटाईमें पड़ जाती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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