Book Title: Varni Vani Author(s): Narendra Jain Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan View full book textPage 7
________________ का महान् उपकार किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में उनकी इस दिव्य वाणी का ही सङ्कलन किया गया है । यह सङ्कलन उनकी दैनन्दिनी, उनके द्वारा दूसरों को लिख्ने गये पत्र और महत्वपूर्ण अनेक लेख एवं सार्वजनिक सभाओं में दिये गये भाषणों के टिप्पण आदि के आधार से किया गया है। ___सङ्कलयिता श्री स्याद्वाद जैन विद्यालय के प्रधान स्नातक प्रिय भाई नरेन्द्रकुमारजी जैन हैं। इसके सङ्कलन व सम्पादन में इन्होंने बड़ा श्रम किया है । अनेक कठिनाइयों को पारकर वे यह स्थिति उत्पन्न कर सके हैं । इस संस्करण को जब उन्होंने वर्णी-ग्रन्थमाला की ओर से प्रस्तुत करने का आग्रह किया तो मैंने सहर्ष स्वीकारता दे दी और आवश्यकता पड़ने पर प्रकरणों को व्यवस्थित करने आदि में भी सहायता की। इसकी भूमिका और पारिभाषिक शब्दकोष भी मैंने ही लिखा है। मेरी इच्छा थी कि इस संस्करण को छपाई आदि की दृष्टि से सर्वाङ्गपूर्ण बनाया जाय, किन्तु सरकार की वर्तमान नीति के कारण मैं ऐसा न कर सका । प्रेस आदि की असुविधा तो है ही। फिर भी जो कुछ मैं कर सका हूँ वह पाठकों के सामने है। मेरा विश्वास है कि इसके स्वाध्याय से पाठकों के जीवन में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होंगे, उन्हें जीवन-संशोधन का अवसर मिलेगा। .. इस काम में मुझे अनेक सहयोगी मिले हैं। कुछ वे हैं जो प्रस्तुत पुस्तक से सम्बन्ध रखते हैं और कुछ वे हैं जिनका सम्बन्ध वर्णी-ग्रन्थमाला से है। प्रस्तुत पुस्तक से सम्बन्ध रखनेवालों में प्रिय भाई नरेन्द्रकुमारजी व उन्हें उपयोगी साहित्यिक सामग्री पुरानेवाले प्रिय बन्धु प्रो०खुशालचन्द्रजी एम० ए० व दूसरे बन्धुगण हैं। कुछ ऐसे भाई भी हैं जिन्होंने प्रथम संस्करण के प्रकाशित करने में सहायता प्रदान की थी। उनमें श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रधान अध्यापक श्री स्याद्वाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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