Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 12
________________ নিকুখী প্রাণীং খ বিনথখীজী সাংস सद्धर्मोपदेशिका परमविदुषी साध्वीश्रीष्ठा श्री विनयश्रीजी महाराज का जयपुर की जैन समाज से, वर्षों से घनिष्ठ सम्पर्क रहा है। इनके व्यक्तित्व एवं सुमधुर उपदेशों से यहां की समाज ने बहुत कुछ प्राप्त किया है। रुग्णता और वार्धक्य के कारण ३५ वर्ष से भी अधिक इनकी जयपुर में स्थिरता रही। इस दीर्वकाल में यहां का समाज इनसे सर्वदा ही लाभान्वित होता रहा । अपनी विनयशीलता और लघुता के कारण आपने अपने जीवनवृत्त पर कभी प्रकाश नहीं डाला । यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री के आधार पर आपके जीवनचरित्र की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार प्राप्त होती है। लोहावट निवासी श्री रतनचंदजी लूणिया की आप पुत्री थीं। आपका जन्म वि. सं० १९४८ पौष वदि १० को हुआ था। माता-पिता ने गुणानुरूप आपका नाम वीरांबाई रखा था। ११ वर्ष की बाल्यावस्था में ही आपके पिता श्री रतनचंदजी ने आपका विवाह खीचन निवासी श्री माणकलालजी बोथरा के साथ कर दिया था। किन्तु दैव दविपाक से विवाह के कुछ महीनों पश्चात् ही श्री माणकलालजी का स्वर्गवास हो गया और १२ वर्ष की अल्पायु में ही वीरांबाई का सौभाग्य-सिन्दूर पोंछ दिया गया। वीरां वैधव्य-जीवन व्यतीत करने लगी। ___ संयोगवश उसी वर्ष खरतरगच्छीया स्वनामधन्या श्री पुण्यश्रीजी म० की शिष्यायें खीचन पधारी। उनके उपदेशामृत से वीरांवाई का हृदय वैराग्य-रंग से रंग गया। सं० १९६१ पौष सुदि १२ को खीचन में श्री स्वर्णश्रीजी म. के वरद कर-कमलों से दीक्षित होकर वीरांबाई विनयश्री के नाम से प्रत्तिनी श्री पूण्यश्रीजी म० की शिष्या बनीं। दीक्षा-ग्रहण के पश्चात् विनय श्रीजी ने बड़े मनोयोग से सिद्धान्तकौमुदी, भट्टिकाव्य, रघुवंशादि महाकाव्य, रत्नकरावतारिकादि दार्शनिक ग्रन्थ और जैनागमों, प्रकरणों तथा साहित्य-ग्रन्थों का विशेष अध्ययन किया । विदुषी बनीं, प्रवचनकार बनीं। आपका विचरण प्रायः कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश और राजस्थान प्रदेश में रहा है । विहार करते हुये अपने सुमधुर एवं प्रभावशाली उपदेशों से स्थान-स्थान पर कई विशिष्ट धर्मकार्य करवाये । हाथरस में दादावाड़ी और सिकन्दराबाद में मंदिर तथा स्कूल की स्थापना, टोंक में मंदिर का जीर्णोद्धार, हाथरस में ज्ञान भंडार, तथा जयपुर शिवजीराम भवन में आयंबिल खाते की स्थापना आदि विशेष कार्य आपही के प्रयत्नों से हुये थे। ___आप केवल व्याख्यानदाता ही नहीं थी अपितु लेखिनी की भी धनी थीं। उपासकदशा सूत्र का मूल और टीका का हिन्दी अनुवाद तथा युगादिदेशना का हिन्दी अनुवाद भी आपने

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