Book Title: Vaidik kosha
Author(s): Bhagwaddatta, Hansraj
Publisher: Vishwabharti Anusandhan Parishad Varanasi

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Page 6
________________ * ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्भद्रं तन्न आसुव ।। यजु०॥ * प्राक्कथन * ग्रन्थारम्भ का इतिहास । कालेज में अध्ययन करते समय में ऋषि दयानन्द सरखती प्रणीत वेद-भाष्य का खाध्याय किया करता था। श्री स्वामी जी महाराज अपने वेद-व्याख्यान में स्थल स्थल पर ब्राह्मणग्रन्थों के प्रमाणों को उद्धृत करते हैं। इन्हीं प्रमाणों के बल पर उन्होंने वेद-मन्त्रों के अनेक सार-गर्मित अर्थ दर्शाए हैं । मरे मन में अनेक वार यह कामना उठता थी कि अखिल ज्ञात ब्राह्मण-ग्रन्थों के ऐसे ही वाक्यों का यदि अकारादि-क्रम से संग्रह हो जाय, तो वेदाभ्यासियों को बड़ी सुगमता होगी । पुनः सन् १९१६ में मैं निरूत का पाठ किया करता था। निरुत में इति ह विज्ञायते । इति ब्राह्मणम् । कह कर कई स्थलों पर ब्राह्मणग्रन्थान्तर्गत वैदिक-शब्दों का निर्वचन भी दिया हुआ है । उस निर्वचन से वेदार्थ में बड़ी सहायता मिलती है। उस से यह बात हृदयंगम हुई कि ब्राह्मण-ग्रन्थों में आये हुए वैदिक-पदों के निर्वचन का भी अकारादि कम से संग्रह होना चाहिये । सन् १९१७ में ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन ' भाग प्रथम छापते समय मेरा ध्यान उनके एक पत्र* की ओर आकृष्ट हुआ । उस में लिखा है ___" निघण्ट सूचीपत्र के सहित तुम्हारे पास भेज दिया है । और निरुक्त तथा ब्राह्मणों के प्रसिद्ध शब्दों की संक्षिप्त सूची भी बनाकर भेजेंगे सो निघण्टु की सूची के अन्त में छपवाना । ” । * देखो-ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भाग प्रथम, पत्र (४४) । + मैंने इस ग्रन्थ का अन्वेषण किया । मुझे इसका पता न लगा । हां, मार्च सन् १९२१ में पण्डित रामगोपाल शास्त्री ने अजमेर समाजोत्सव से आकर मुझे सूचित किया कि उन्होंने श्रीस्वामी जी के कागजों के एक बण्डल में इस ग्रन्थ को खोज लिया है। -- --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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