Book Title: Vaidik evam Shraman Vangamay me Nari Shiksha Author(s): Sunita Bramhakumari Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 3
________________ • यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. शिक्षा का साधन शिक्षा एक प्रक्रिया है, जो ग्रहण की जाती है। ग्रहण करने की प्रक्रिया शिशु के जन्म से प्रारंभ होकर मृत्युपर्यंत चलती रहती है। शिक्षा के साथ भी यही होता है । बालक किसी कुल या परिवार में जन्म लेता है और वही परिवार उसकी प्रथम या प्रारंभिक शिक्षाशाला होती है। शिक्षा का प्रारंभिक ज्ञान परिवार में प्राप्त करने के बाद एक विशेष काल में शिशु बाह्य जगत् में बनी हुई विभिन्न शालाओं में प्रवेश लेकर विविध प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करता है। प्राचीन काल में शिक्षा की मौखिक परंपरा चला करती थी और विद्यार्थी स्मृति के आधार पर शिक्षा ग्रहण करते थे। वैदिक युग में ऋषिकुल की परंपरा थी और ऋषिगण अपने पुत्रों को मौखिक शिक्षा दिया करते थे। शिक्षा की यह परंपरा पारिवारिक संस्था के रूप में स्थापित थी । " पारिवारिक शिक्षा-दान की यह परंपरा बहुत काल तक चलती रही। बाद में यज्ञ-विधानों तथा इसी तरह की अन्य जटिलताओं के कारण गुरुकुलों की स्थापना हुई। इनमें ऋषि पुत्रों के साथ-साथ समाज के अन्य लोग भी शिक्षा ग्रहण करने लगे।' इन गुरुकुलों में शास्त्रीय शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का भी ज्ञान विद्यार्थियों को कराया जाता था। यद्यपि गुरुकुलों में बालकों को ही शिक्षा दी जाती थी, परंतु यहाँ कन्याएँ भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। वे विद्याग्रहण करने के साथ-साथ शास्त्रों की भी रचना किया करती थीं। इस अनुक्रम में विश्ववारा, घोषा, लोपामुद्रा आदि विश्वविश्रुत नारियों का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। उन्होंने वैदिक (ऋग्वेद) मंत्रों की रचना की थी । " शास्त्र - रचना के साथ-साथ स्त्रियाँ अध्यापन कार्य भी किया करती थीं। अध्ययन कार्य में रत रहने वाली इन स्त्रियों को उपाध्याया कहा जाता था। ये स्त्रियाँ स्त्रीशालाओं का संचालन किया करती थीं, जिनमें बालिकाएँ विविध प्रकार की शिक्षा ग्रहण करती थीं। १° Jain Education International - वैदिक परंपरा की भांति श्रमण-परंपरा में भी शिक्षा की मौखिक विधि ही स्वीकृति थी । यहाँ भी शिक्षा का हस्तांतरण पारिवारिक एवं पारम्परिक रूप में चलता था। ओघनियुक्ति में यह उल्लेख मिलता है कि एक वैद्य अपनी मृत्यु के पूर्व वैद्यक विद्या अपनी पुत्री को सिखा गया था। ११ श्रमण- परंपरा में भिक्षुणी - संघ एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी । इस संघ में अनाश्रिता శార स्त्री, अनगार अवस्था को प्राप्त करने को इच्छुक नारी तथा सांसारिक जीवन की दुःखमयता के कारण इससे त्राण पाने वाली महिलाओं को प्रवेश दिया जाता था। ऐसी स्त्रियों को यहाँ शास्त्रीय शिक्षा का ज्ञान प्रदान कराया जाता था। इस संघ में प्रवेश की अनिच्छुक स्त्रियों को नियमित शास्त्रीय शिक्षा नहीं दी जाती थी। १२ तात्पर्य यह है कि श्रमणपरंपरा में प्रायः उन्हीं स्त्रियों को शास्त्रीय शिक्षा दी जाती थी जो सांसारिक अवस्था को त्यागकर संन्यासमय जीवन को अपना लेती थीं या अपनाने को उद्यत रहती थीं। स्त्रियों के शिक्षा ग्रहण करने के संबंध में वैदिक परंपरा में श्रमण-परंपरा की इन विधियों का अनुपालन नहीं होता था । यहाँ स्त्रियाँ एक ही अवस्था में संसारिक एवं शास्त्रीय दोनों शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। यहाँ स्त्रियाँ -सद्योवधु एवं ब्रह्मवादिनी इन दो रूपों में शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं । सद्योवधु विवाह के पूर्व वैवाहिक जीवन की आवश्यकतानुसार कुछ मंत्रों का अध्ययन कर लेती थी, जबकि ब्रह्मवादिनी अपनी शिक्षा को पूर्ण करके ही विवाह करती थी । यंज्ञवल्क्य ऋषि की दो पत्नियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । मैत्रेयी जहाँ ब्रह्मवादिनी थी वहीं कात्यायनी गृहस्थधर्मा। यहाँ वैदिक और श्रमण परंपरा का अंतर स्पष्ट परिलक्षित होता है। श्रमणपरंपरा में जहाँ संन्यास मार्ग की ओर प्रवृत्त स्त्री को शास्त्रीय शिक्षा देने का प्रावधान है, वहीं वैदिक परंपरा में गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बिताने वाली स्त्री भी शास्त्रीय शिक्षा से युक्त होती है। वैदिक परंपरा में स्त्रियों को पारिवारिक संस्था के साथसाथ गुरुकुलों में भेजकर शास्त्रीय ज्ञान की शिक्षा दी जाती थी । प्रायः इसे एक आवश्यक कार्य माना जाता था। लेकिन श्रमण - परंपरा में विशेषरूप से बौद्ध युग के प्रारंभिक काल तक नारी शिक्षा का प्रचलन समाप्तप्राय हो गया था । १४ स्त्री को विवाह के पूर्व और पश्चात् केवल कुशल गृहिणी बनने की ही शिक्षा दी जाती थी। इसका प्रधान कारण यह था कि उस काल में स्त्रियों को दी जाने वाली शास्त्रीय शिक्षा निरर्थक समझी जाती थी । १५ प्रायः संन्यास - मार्ग की ओर प्रवृत्त तथा भिक्षुणी बनने वाली स्त्रियों को ही भिक्षुणी - संघ में शास्त्रोचित ज्ञान दिया जाता था । श्रमण-साहित्य में कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जहाँ इस बात का उल्लेख किया गया है कि वैदिक परंपरा की भाँति श्रमण GramonGoGo 49 prin For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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