Book Title: Vaidik evam Shraman Vangamay me Nari Shiksha
Author(s): Sunita Bramhakumari
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास करती है, जिसकी सहायता से वह अपने मनोरथों को पूर्ण करता है । मनोरथों का जाल बहुत घना है। आसक्ति इसे और भी कठिन बना सकती है। शिक्षा मनुष्य को इसका बोध कराती है और व्यक्ति अनासक्त भाव से अपने प्रयोजनों को पूर्ण करता है । उसकी यही अनासक्ति कामरूप फल से रहित सम्पदाओं की परंपरा उत्पन्न करती है। शिक्षा एक सामाजिक संविदा है। यह मनुष्य को समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं से अवगत कराती है। यह मनुष्य की मानसिक जिज्ञासाओं को शांत रखने का मार्ग सुलभ कराती है। जिन पर चलकर वह विविध प्रकार के कला-कौशल का ज्ञान प्राप्त करता है । वह जितना ही अधिक इस दिशा में अग्रसर होता है, उतना ही अधिक सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करता जाता है। शिक्षा के कारण उसके अंतर्मन के चक्षु इतने अधिक विकसित हो जाते हैं, कि वह विभिन्न प्रकार के रहस्यों को उद्घाटित करने लगता है। महाभारत में कहा भी गया है कि शिक्षा के समान कोई तीक्ष्ण चक्षु नहीं है। शिक्षा की यह तीक्ष्णता ही उसकी शक्ति है। उसकी शक्ति की इस परिधि से संसार का कोई भी तत्त्व बाहर नहीं जा सकता। सम्पूर्ण तत्त्वों का दिग्दर्शन शिक्षा के द्वारा संभव है । इसीलिए ज्ञान (शिक्षा) को मनुष्य का तृतीय नेत्र कहा जाता है, जो सभी प्रकार के तत्त्वों के दिग्दर्शन की क्षमता रखता है।" ज्ञान (शिक्षा) व्यक्ति में शक्ति का संचार करता है, जिसकी सहायता से वह यथार्थ - अयथार्थ, सम्यक् असम्यक् तत्त्वों के स्वरूप से अवगत होता है। वह इस स्तर पर अपने को प्रतिष्ठापित कर लेता है कि हेय-उपादेय के बीच अंतर स्थापित कर सके। प्रकाश और अंधकार मानव जीवन के दो विरोधी पक्ष हैं। प्रायः मनुष्य प्रकाश को ही अपनाना चाहता है। अंधकार को अज्ञान अथवा अशिक्षा का पर्याय माना गया है। शिक्षा के द्वारा अज्ञानरूपी इस अंधकार को मिटाया जा सकता है। इसीलिए बहुधा यह कहा गया है कि मनुष्य को शिक्षा रूपी प्रकाश से युक्त होना चाहिए। शिक्षा का यह प्रकाश मानव जीवन में मूलभूत परिवर्तन ला सकता है। वह उसे चरमपद पर आरूढ़ करा सकता है। आत्म-साक्षात्कार करा सकता है । दशवैकालिक में कहा गया है. ६ -- आत्मा को धर्म में स्थापित करने के लिए अध्ययन करना चाहिए । अध्ययन शिक्षा का अविभाज्य अंग है। Jain Education International बिना अध्ययन किए शिक्षा की प्राप्ति शायद ही संभव हो। चाहे यह पारंपरिक विधि से ग्रहण किया गया हो अथवा गैर परंपरागत विधि से। आत्मा को धर्म में स्थित किए बिना आत्म-साक्षात्कार संभव नहीं है। आत्म-साक्षात्कार किए बिना चरमपद भी नहीं पाया जा सकता है। अतः अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने और चरमपद की अभिलाषा रखने वालों को शिक्षा रूपी प्रकाश से युक्त होना चाहिए। यहाँ चरमपद से हमारा तात्पर्य मनुष्य की उस अवस्था से है, जहाँ वह, पूर्ण ज्ञानी है। अतः उसे समस्त प्रकार के बोधों से युक्त होना चाहिए। वह परम सत्य की ज्योति का साक्षात्कार करने की अवस्था से युक्त हो। इस रूप में शिक्षा का व्यापक अर्थ माना जाता है तथा इसकी एक विशेष विधि भी मान्य की गई है। यह विधि है श्रवण, मनन और निविध्यासन । इस विधि को अपनाकर व्यक्ति पूर्ण बोध से युक्त हो जाता है । वह परम सत्य की ज्योति का साक्षात्कार करने लगता है। वह अपने स्वरूप में रमण करने लगता है। वह आत्मधर्म की अवस्था से अवगत होने लगता है। उसके जीवन का परम लक्ष्य क्या है? वह कौन है? आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान की ओर अग्रसर होता है। थोड़े शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा का एक रूप मनुष्य को उसके परम लक्ष्य या ध्येय से अवगत कराना भी है। उपर्युक्त चिंतन शिक्षा के विविध रूपों को स्पष्ट करता है, जो इसके विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता है। शिक्षा के निम्न लिखित स्वरूप हो सकते हैं-- १. मूल्यों और सामाजिक मान्यताओं का निर्धारण करने वाली एक सामाजिक प्रक्रिया, २ . मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों से अवगत कराने वाली एक विधि, ३. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर विविध प्रकार के कला, कौशल, विज्ञान एवं तकनीक से मनुष्य को समृद्ध करने वाली क्रिया, ४. मनुष्य को सांसारिक वैभव, सुख-समृद्धि प्रदान कराने वाली प्रक्रिया, ५. मनुष्य के अंतः और बाह्य व्यक्तित्व का निर्माण, ६. आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाली क्रियाएँ, ७. मनुष्य को आत्मस्वरूप में स्थित करना, ८. परम सत्य की ज्योति का साक्षात्कार कराना आदि। प्रत्येक रूप में शिक्षा मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है, जिसका मुख्य प्रयोजन मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक सुख प्रदान करना है। Grasand he Jaérméré For Private & Personal Use Only SMS www.jainelibrary.org

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