Book Title: Vaidik evam Shraman Vangamay me Nari Shiksha
Author(s): Sunita Bramhakumari
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 1
________________ शि क्षा प्राप्त करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में समाज के सभी सदस्य सहभागी बन सकते हैं। इसमें किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए, परंतु दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र में विविध प्रकार के भेद किए गए हैं। कभी जन्म के आधार पर, कभी वर्ण के आधार पर, कभी कर्म के आधार पर इस प्रकार के विभिन्न भेद शिक्षा के क्षेत्र में मिल जाते हैं। यद्यपि इन सबके कई कारण बताए जाते हैं, लेकिन आज ये मान्यताएँ लगभग समाप्तप्राय हो गई हैं। आज जो भी व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करना चाहता है, वह विविध प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त कर सकता है। नारी - शिक्षा भी आज एक ज्वलंत प्रश्न है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक स्त्रियों ने शिक्षा जगत् के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। सभी ने उसकी बुद्धिमत्ता और कुशलता को सराहा है। लेकिन यहाँ ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है, जहाँ स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने से रोका गया है। उनकी प्रतिभा को दबाकर उनकी भावनाओं को कुण्ठित करने का प्रयत्न हुआ है। इनके चाहे जो भी कारण रहे हों, परंतु सामाजिक सुव्यवस्था हेतु स्त्रियों का शिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि वास्तव में स्त्रियों को ही गृहस्थी की सुव्यवस्थित संचालिका एवं समाज की नीति-निर्देशिका होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक एवं श्रमण- वाङ्मय में नारी - शिक्षा शिक्षा का स्वरूप शिक्षा का अर्थ 'सीखना है। सीखने की यह प्रक्रिया मनुष्य के जन्म लेने से ही प्रारंभ हो जाती है और मृत्युपर्यंत चलती रहती है। उसकी सीखने की यह प्रवृत्ति ही उसे सुसंस्कृत बनाती है और वह नैष्ठिक आचरण की ओर प्रवृत्त होता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व का निर्धारक होने के साथसाथ उसकी सामाजिक अभिवृत्ति का भी परिचय देती है। प्राचीनकाल में भारतीय चिंतकों ने मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्ति को उसके व्यक्तित्व - निर्माण एवं सामाजिक अभिप्रेरणा का मूल कारण माना है, जिसकी अंतिम परिणति मोक्ष, कैवल्य Simmo Jain Education International अथवा ब्रह्म-प्राप्ति है। वस्तुतः शिक्षा का यही वास्तविक स्वरूप है। ब्रह्म वह चरम सत्ता है जिसमें समस्त भासमान जगत् परिव्याप्त है ।' शिक्षा के द्वारा इस ब्रह्म को प्राप्त कर मनुष्य समस्त संसार को अपने गुणों से परिव्याप्त कर देता है। GGG 43 डॉ. सुनीता कुमारी........ बी.एस.एम. कॉलेज, रुड़की मनुष्य के समक्ष लौकिक एवं आध्यात्मिक ये दो प्रकार की आवश्यकताएँ रहती हैं। इन दोनों की सम्यक् पूर्ति करना मनुष्य का धर्म है। शिक्षा मनुष्य को उसके इस धर्म से अवगत कराती है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है - ज्ञान (शिक्षा) की प्रतिष्ठा बनाए रखना व्यक्ति का नैतिक धर्म है। स्वाध्याय एवं प्रवचन से मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है। वह स्वतंत्र बन जाता है। नित्य उसे धन प्राप्त होता है । वह सुख से सोता है। वह अपना परम चिकित्सक बन जाता है। वह इंद्रियों पर संयम रखने की कला से अवगत हो जाता है। उसकी प्रज्ञा बढ़ती है। वह यश को प्राप्त करता है। शतपथ ब्राह्मण का यह कथन शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है। यहाँ शिक्षा इंद्रियसंयम, यशवृद्धि, प्रज्ञावृद्धि, चित्त - एकाग्र तथा नैतिक धर्म इन सबको प्राप्त कराने की सामर्थ्य से युक्त मानी गई है। इन विविध रूपों में शिक्षा मनुष्य को लौकिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त कराती है। क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में शिक्षा को धन प्राप्त कराने वाला एवं सुखपूर्वक निद्रा दिलाने वाला भी कहा गया है। जैन परंपरा में शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है - शिक्षा मनुष्य को पूर्ण करने वाली कामधेनु है। शिक्षा ही चिंतामणि है । शिक्षा ही धर्म है तथा कामरूप फल से रहित सम्पदाओं की परंपरा उत्पन्न करती है। शिक्षा ही मनुष्य का बंधु है, शिक्षा ही मित्र है, शिक्षा ही कल्याण करने वाली है, शिक्षा ही साथ ले जाने वाला धन है और शिक्षा ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। मनुष्य अपने आप में कभी पूर्ण नहीं हो सकता, लेकिन शिक्षा उसकी अपूर्णता को दूर कर उसे पूर्ण बनाती है। मनुष्य के समक्ष विविध प्रकार की समस्याएँ रहती हैं, जिन्हें वह हल नहीं कर पाता है। परंतु शिक्षा उसे एक ऐसा माध्यम प्रदान For Private Personal Use Only ক www.jainelibrary.org

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