Book Title: Vachak Mukti Saubhagya gani Krut Stavan Chovisi
Author(s): Abhay Doshi
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 18
________________ September-2003 95 इम कहेती राजुल भली रे, जायें रैवत आप. नेम वांदी भक्तिस्युं रे, पामें मुगति ते थाप. इति श्रीनेमिजिनस्तवनं ॥२२॥ प०७आ० २ पा० (वीरजिणंद जगत उपगारी-ए देशी) पास जिणेसर तुं जगनायक, तुझ सम अवर न कोयजी. संकटचूरण आशापूरण, नामें नवनिधि होयजी. १ पा० कर्म पसाइं नरभव पाम्यो, कागताल न्याई हुं देवजी. जिम भूख्यो पंचामृतनें, तिम वांछु हुं ताहरी सेवजी. यथाप्रकारे सेव न जाणुं, जिम कहे प्राचीन शिष्ठजी. वांको चूको पिण घेउनो मांडो, सहुने लागें मन मिष्टजी. ३ पा० गुणी थइनें सेवाइं राजी, काहा कुण गाम ए नीतिजी. शुद्ध मणि उपरि नवि चालें, मणिकना यत्ननी रीतिजी. ४ पा० पिण जगतारक नाम छे ताहुरूं, मुज तारें तो प्रमाणजी. सम विषमें वरसें जगहेतें, मेध न मागे दाणजी. वेधक जाणने चित्तनी वातो, मुखथी कही न जायजी. अंगित आकारें विधक वेधे, अंतर दूरे थायजी. ६ पा० तुम समो जाण अवर न पेखुं, सी कउ काफी वातजी. कृपा करीने बोधी दीजें, वाचक मुगतिने महंतजी. ७ पा० । इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनं ॥२३॥ ५ पा० (इणि अवसर तिहां-ब- रे-ए देशी) वीर जिणेसर देवनी रे, सेवा करुं एक चित्त रे. वालेसर. अहवो एके को नहीं हो लाल, दुसमसमयनी कालमां रे, राखे जिम नीर रे वा० दास पोतानो जाणी करी हो लाल. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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