Book Title: Uttaradhyayansutram Part 03
Author(s): Vadivetal, Shantisuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 14
________________ उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५१७॥ 'ओहोव होवग्गहियं' ति उपधिशब्दो मध्यनिर्दिष्टत्वात् डमरुकगुणग्रन्थिवदुभयत्र संबध्यते, तत ओघोपधिमौपग्रहिकोपधिं च 'भाण्डकम्' उपकरणं रजोहरणदण्डकादि 'द्विविधम्' उक्तभेदतो द्विभेदं मुनिः 'गृह्णन्' आददानः 'निक्षिपंश्च' क्वचित्स्थापयन् 'प्रयुञ्जीत' व्यापारयेत् 'इमं' वक्ष्यमाणं 'विधि' न्यायं । तमेवाह - 'चक्षुषा' दृष्टया 'पडिले हित्त 'त्ति 'प्रत्युपेक्ष्य' अवलोक्य 'प्रमार्जयेत्' रजोहरणादिना विशोधयेत् यतमानो यतिस्ततः 'आदिए' त्ति 'आद्दीत ' गृह्णीयात् 'निक्षिपेद्वा' स्थापयेत् 'दुहतोऽवि 'त्ति द्वावपि प्रक्रमा दौघिको पग्राहिकोपधी, यदिवा 'द्विधाऽपि ' द्रव्यतो भावतश्च 'समितः ' प्रक्रमादादाननिक्षेपणासमितिमान् सन् 'सदा' सर्वकालमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति परिष्ठापनासमितिमाह - उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाण जल्लियं । आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं ॥ १५ ॥ अणावायमसंलोए अणवाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चैव संलोए ॥ १६ ॥ अणवायमसंलोए, पर|स्सऽणुवघाइए । समे अज्झसिरे वावि, अचिरकालकयंमि य ॥ १७ ॥ विच्छिन्ने दूरमोगाढे, णासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीयरहिए, उच्चाराईणि बोसिरे ॥ १८ ॥ 'उच्चारं ' पुरीषं 'प्रश्रवणं' मूत्रं 'खेल' मुखविनिर्गतं श्लेष्माणं 'सिंघाणं'ति नासिकानिष्क्रान्तं तमेव 'जल्लियं' ति आर्षत्वात् जल्लो - मलस्तम् ' आहारम्' अशनादिकम् 'उपधिं' वर्षाकल्पादि 'देह' शरीरम् 'अन्यद्वा' कारणतो गृहीतं Jain Education International For Personal & Private Use Only प्रवचनमा त्राख्यम्. २४ ॥५१७॥ www.jainelibrary.org

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