Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 02
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust
View full book text
________________
अध्य.८
उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३॥
न्धिनि काये निकाये, एवंविधा हि किञ्चित्कष्टानुष्ठानमनुतिएन्तोऽपि विराधकत्वादसुरेष्वेवोत्पद्यन्ते इति सूत्रार्थः ॥१४॥ ततोऽपि च्युतास्ते
किं प्राप्नुवन्तीत्याह --- | मूलम् - तत्तोवि उव्वट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरिअडंति । बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होई सुदुल्लहो तेसिं ॥१५॥
व्याख्या- ततोऽपि असुरनिकायादुद्धृत्य निर्गत्य संसारं भवं 'बहु' विस्तीर्णं अनुपर्यटन्ति सातत्येन परिभ्रमन्ति, किञ्च बहुकर्मलेपलिप्तानां बोधिः प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिः भवति सुदुर्लभोऽतिशयेन दुष्प्रापः तेषां, ये लक्षणादि प्रयुञ्जते । यतश्चैवमतो नोत्तरगुणविराधना कार्येति सूत्रार्थः ॥२५॥ ननु किमेते जानन्तोऽप्येवं लक्षणादि प्रयुञ्जते ? उच्यते- लोभवशादत एव तदाकुलस्यात्मनो दुष्पूरत्वमाह --
मूलम् - कसिणंपि जो इमं लोगं , पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स।
तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥१६॥ व्याख्या- कृत्स्नमपि सकलमपि यः सुरेन्द्रादिरिमं प्रत्यक्षं लोकं प्रतिपूर्णं धनधान्यादिभृतं 'दलेज्जत्ति' दद्यात् 'इक्कस्सत्ति' एकस्मै कस्मैचिदाराधकाय तेनापि धनादिपूर्णलोकदायकेनापि स लुब्धो न सन्तुष्येत्, अनेन दायकेन मम परिपूर्णता कृतेति न सन्तुष्टिमाप्नुयात् । यदुक्तं-"न वह्निस्तृणकाष्ठाद्यै-नंदीभिर्वा महोदधिः ॥ न चैवात्मार्थसारेण, शक्यस्तर्पयितुं क्वचित् ॥१॥" इत्यमुना प्रकारेण दुःखेन पूरयितुं शक्यो दुष्पूरः स एव दुष्पूरकः 'इमेत्ति' अयं प्रत्यक्ष आत्मा जीवस्तदिच्छायाः पूरयितुमशक्यत्वादिति
UTR-2
॥१३॥

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 386