________________
सुमेल से जीवन स्थिर बनता है। एक समर्थ प्राचार्य के शब्दों में कहा जा सकता है, कि "किसी एक देश और काल में एक वस्तु अधर्म है, तो वही तदभिन्न देश और काल में धर्म भी हो सकती है।"५
अपरिग्रह का उत्सर्ग और अपवाद :
उत्सर्ग स्थिति में साधु के लिए पात्र आदि धर्मोपकरण, जिनकी संख्या १४ बताई है, ग्राह्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सब परिग्रह हैं। और, परिग्रह भिक्षु के लिए सर्वथा वयं है।५२
परन्तु अपवादीय स्थिति की गंभीरता भी कुछ कम नहीं है। जब कोई भिक्षु स्थविरभमि-प्राप्त स्थविर हो जाता है, तो वह छतक, चर्मछेदनक आदि अतिरिक्त उप आवश्यकतानुसार रख सकता है ।
आचारांग सूत्र में समर्थ तथा तरुण भिक्षु को एक पात्र ही रखने की आज्ञा है,५४ अतएव प्राचीन काल का मात्रक, तथैव अाज कल के तीन या चार पात्र अपवाद ही हैं।
निशीथ चूर्णिकार ने ग्लानादि कारण से ऋतुबद्ध एवं वर्षाकाल के उपरान्त एक स्थान पर अधिक ठहरे रहने को भी परिग्रह का कालकृत अपवाद ही माना है।५५ ।।
यदि कोई भिक्षु विषग्रस्त हो जाए, तो विष निवारण के लिए, सुवर्ण घिसकर उसका पानी विष-रोगी को देने का भी वर्णन है। यह सुवर्ण-ग्रहण भी अपरिग्रह का अपवाद है ।५६
भिक्षु को यथाशास्त्र निर्दिष्ट पात्र ही रखने चाहिएँ, यदि अधिक रखता है, तो वह परिग्रह है। परन्तु दूसरों के लिए सेवाभाव की दृष्टि से अतिरिक्त पात्र रख भी सकता है।
पुस्तक, शास्त्र वष्टन, लेखनी, कागज, मसि, आदि भी परिग्रह ही है, क्योंकि ये सब भिक्षु के धर्मोपकरण में परिगणित नहीं हैं। परन्तु, चिरकाल से ज्ञान के साधन रूप में अपरिग्रह का अपवाद मान कर इनका ग्रहण होता रहा है और हो रहा है ।
गह-निषद्या का उत्सर्ग और अपवाद :
भिक्षु, गृहस्थ के घर पर नहीं बैठ सकता, यह उत्सर्ग-मार्ग है। प्रत्येक भिक्षु को इस नियम का कठोरता के साथ पालन करना होता है।५८
परन्तु जो भिक्षु जराभिभूत वृद्ध है, रोगी है, अथवा तपस्वी है, वह गृहस्थ के घर बैठ सकता है। वह गृहनिषद्या के दोष का भागी नहीं होता।
५०. यस्मिन् देशे काल, यो धर्मो भवति। स एव निमित्तान्तरेषु अधर्मो भवत्येव ।। ५१. प्रश्न व्याकरण, संवर द्वार, अपरिग्रह निरूपण ५२. दशवकालिक, चतुर्थ अध्ययन, पंचम महावत ५३. व्यवहार सूत्र ८,५ ५४. तहप्पगारं पायं जे निम्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धरेज्जा, नो बिइयं
-प्राचा०२, १, ६, १.१ ५५. गिलाणो सो विहरिउमसमत्थो, उउबद्ध वासियं वा अइरितं वसेज्जा।
गिलाणपडियरगा वा ग्लानप्रतिबद्धत्वात् अतिरित्तं वसेज्जा।-निशीथ चर्णि, भाष्य ४०४ ५६. विषग्रस्तस्य सुवर्ण कनकं तं घेत्त घसिऊण विषणिग्घायणट्रा तस्स पाणं दिज्जति, अतो गिलाणट्ठा ओरालियग्रहणं भवेज्ज।
--निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा ३६४ ५७. कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा अइरेगपडिग्गहं अन्नमन्नस्स अट्राए धारेत्तए, परिम्गहित्तए वा......
-व्यवहार सून ८, १५ ५८. गिहन्तरनिसेज्जा य......
-दश० ३,४। दश० ८,८ ५९. तिण्हमन्त्रयरागल्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ।
जराए अभिभूयस्स, वाहिस्स तवस्मिणो ||--दशबैकालिक ६,६०
२४४
पन्ना समिक्खए धम्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org