Book Title: Utsarg Aur Apwad Dono Hi Marg
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग जैन-साधना: जैन संस्कृति की साधना, आत्म-भाव की साधना है, मनोविकारों के विजय की साधना है। वीतराग प्ररूपित धर्म में साधना का शुद्ध लक्ष्य है-मनोगत विकारों को पराजित कर सर्वतोभावेन आत्मविजय की प्रतिष्ठा। अतएव जैनधर्म की साधना का आदिकाल से यही महाघोष रहा है कि एक (आत्मा का अशुद्ध भाव) के जीत लेने पर पाँच-क्रोधादि चार कषाय और मन जीत लिए गए, और इन पाँचों के जीत लिए जाने पर दश (मन, चार कषाय और पाँच इन्द्रिय) जीत लिए गए। इस प्रकार दश शत्रुनों को जीत कर मैंने, जीवन के समस्त शत्रुनों को सदा के लिए जीत लिया है। जैन-साधना का संविधान : जैन-शब्द 'जिन' शब्द से बना है। जो भी जिन का उपासक है, वह जैन है। जिन के उपासक का अर्थ है-जिनत्व-भाव का साधक । राग-द्वेषादि विकारों को सर्वथा जीत लेना जिनत्व है । अतः जो राग-द्वेष रूप विकारों को जीतने के लिए प्रयत्नशील है, कुछ को जीत चुका है, और कुछ को जीत रहा है, अर्थात् जो निरन्तर शुद्ध जिनत्व की ओर गतिशील है, वह जैन है। - अस्तु निजत्व में जिनत्व की प्रतिष्ठा करना ही जैन-धर्म है, जैन-साधना है। यही कारण है कि जैन-धर्म बाह्य विधि-विधानों एवं क्रिया-काण्डों पर आग्रह रखता हुआ भी, प्राग्रह नहीं रखता है, अर्थात् दुराग्रह नहीं रखता है। साधना के नियमोपनियमों का प्राग्रह रखना एक बात है, और दुराग्रह रखना दूसरी बात है, यह ध्यान में रखने जैसा है। साधना के लिए विधिनिषेध आवश्यक है, अतीव आवश्यक हैं। उनके बिना साधना का कुछ अर्थ नहीं। फिर भी वे गौण हैं, मुख्य नहीं। मुख्य है-समाधि-भाव, समभाव, प्रात्मा की शुद्धि । अन्तर्मन शान्त रहे, कषायभाव का शमन हो, चंचलता--उद्विग्नता जैसा किसी प्रकार का क्षोभ न हो, सहज शुद्ध शान्ति एवं समाधि का महासागर जीवन के कण-कण में लहराता रहे, फिर भले ही वह किसी भी तरह हो, किसी भी साधन से हो, यह है जैन साधना का अजर-अमर संविधान । इसी संविधान की छाया में जैन-साधना के यथा देश-काल विभिन्न रूप अतीत में बदलते रहे हैं, वर्तमान में बदल रहे हैं और भविष्य में बदलते रहेंगे। इसके लिए जैन तीर्थंकरों का शासन-भेद ध्यान में रखा जा सकता है। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर एककार्यप्रपन्न थे, एक ही लक्ष्य रख रहे थे, फिर भी दोनों में विशेष विभेद था। दोनों ही महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित साधना का अन्तःप्राण बन्धन-मुक्ति एक था, किन्तु बाहर में चातुर्याम और पंच १. एगे जिए जिया पंच, पंच जिरा जिया दस। दसहा उ जिणित्ता णं, सब्व-सत्तू जिणामहं ।। --उत्तराध्ययन २३, ३६ २. दोसा जेण निरंभंति, जेण खिज्जति पुवकम्माइं। सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व॥ -निशीथ भाष्य गा० ५२५० उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग २२७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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