Book Title: Utkirtan Sutra Ek Vivechan
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 4
________________ [196 | जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 पाँचवीं गाथा में तीर्थंकर भगवन्तों को कर्मरूपी रजमैल से रहित वृद्धावस्था व मृत्यु के विजेता बताते हुए कहा है कि ऐसे परमाराध्य मुझ पर प्रसन्न होवें। तीर्थंकर किसी पर न तो प्रसन्न होते हैं न ही किसी से नाराज होते हैं, यह शाश्वत नियम है। फिर भी इस गाथा में अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए कहा है कि जिस प्रकार सूर्य की पहली किरण के साथ कमल का फूल खिल जाता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों के गुणानुवाद से मुझे आत्मिक उल्लास प्राप्त हो, मेरे भाव शुद्ध बनें, मैं शिवपदगामी बनूँ यही मुझ पर तीर्थंकरों की प्रसन्नता है। छठी गाथा में त्रियोगों को स्तुत्य क्रम से समायोजित कर कहा है कि सर्वप्रथम में वचन योग से आपका कीर्तन करता हूँ तत्पश्चात् काय योग से नमन करता हूँ और फिर मनोयोग से आदर-बहुमान करता हूँ। क्योंकि आप लोक में उत्तम हैं। जैसा कि भक्तामर स्तोत्र की एकादश गाथा प्रकट करती है यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं । निर्मापितस्त्रिभुवनैक - ललाम - भूतः ।। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्याम् । यत्ते समानमपरं न हि रुपमस्ति ।। अर्थात् हे त्रिभुवन के एकमात्र ललामभूत भगवन्! जिनशान्ति भावों के धारक कान्तिमान परमाणुओं से आप बनाये गये हैं, वे परमाणु भी निश्चित ही उतने ही थे, क्योंकि आप जैसा उत्तम इस लोक में कोई नहीं आगे तीर्थंकरों से आरोग्य (आत्म-शान्ति), बोधिलाभ (सम्यग्ज्ञान) तथा श्रेष्ठ समाधि की अभिलाषा की गई है। तीर्थंकर कुछ देते नहीं है, लेकिन उनका गुणानुवाद करने से सहज ही उपयुक्त अभिलाषा की पूर्ति हो जाती है। जैसे अंजन नहीं चाहता है कि मैं किसी की नेत्र ज्योति बढ़ाऊँ तथापि उसके उपयोग से नेत्र की ज्योति बढ़ती है ठीक उसी प्रकार निष्काम, निस्पृह वीतराग परमात्मा भले ही किसी को लाभ पहुँचाना न चाहें, किन्तु उनके स्तवन से लाभ अवश्य ही प्राप्त होता है। अन्तिम गाथा में तीर्थंकरों को चन्द्र, सूर्य व महासमुद्र से अधिक क्रमशः निर्मल, प्रकाशक व गंभीर बताकर अन्तिम लक्ष्य सिद्धि की चाहना की गई है। 'अपि' शब्द महाविदेह क्षेत्र में विचरण करने वाले तीर्थंकरों (विहरमानों) को समाहित करता है। तीर्थंकरों के जीवन में निरूपित गुणों को धारण कर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। लोगस्स के उपर्युक्त पाठ में सात गाथाओं में से प्रथम, पंचम, षष्ठ एवं सप्तम गाथा शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है, लेकिन गाथा द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ परिवर्तनीय है। जब तीर्थंकर-चौबीसी बदलती है तो इन गाथाओं में आने वाले तीर्थंकर प्रभुओं के नाम भी बदलते रहते हैं। उपर्युक्त पाठ में वर्तमान चौबीसी के नाम आये हुए हैं। चतुर्विंशतिस्तव के फल के बारे में उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय २९ में श्री गौतमस्वामी के द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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