Book Title: Utkirtan Sutra Ek Vivechan
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 2
________________ जिनवाणी 194 को उज्ज्वल और प्रकाशमान बनाया है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी लोक के प्रकाश पुंज, धर्म तीर्थ स्थापक, वीतराग भगवन्त जो त्याग, वैराग्य और संयम-साधना में उत्कृष्ट आदर्श रूप हैं, राग-द्वेष विजेता, काम-क्रोधादि अंतरंग शत्रुओं के नाशक, केवलज्ञानी हैं ऐसे चौबीसों तीर्थंकरों की स्तुति करना या गुणानुवाद करना या उनके गुणों का कीर्तन करना, उत्कीर्तन सूत्र या चतुर्विंशतिस्तव सूत्र कहलाता है। हमारा अन्तिम लक्ष्य अरिहन्त दशा को प्राप्त करना है और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन महापुरुषों का आलम्बन आवश्यक है जिन्होंने लक्ष्य को प्राप्त किया है। क्योंकि जो स्वयं अपूर्ण है उससे कभी दूसरे को पूर्णता की प्राप्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। पूर्ण ज्ञानी एवं कषायरहित आत्मा की भक्ति करने हेतु उत्कीर्तन सूत्र का विधान किया गया है। इसमें उन्हीं महापुरुषों का वर्णन है जिनके कि राग का दाग नहीं व द्वेष का लवलेश नहीं है। उत्कीर्तन ( प्रशंसा) अरिहन्त भगवन्तों का हो इसलिए दूसरे आवश्यक से पूर्व सामान्य आवश्यक में सावद्य योगों से निवृत्त हुआ जाता है। पाप रूपी कीचड़ से सना व्यक्ति पहले आवश्यक 'सामायिक' में पापों को विराम लगा दे, तभी तीर्थंकरों की स्तुति करने की योग्यता प्राप्त करता है। तीर्थंकर भगवन्तों के नाम व गुणों की स्तुति करना उत्कृष्ट भक्ति को परिलक्षित करता है, इसलिए इसे 'भक्ति आवश्यक' भी कहा जाता है। मोक्षमार्ग के उपाय- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र में प्रमुख 'सम्यग्दर्शन' भक्ति से ही संबंधित है। वैदिक दर्शन भी ज्ञानयोग, भक्तियोग व कर्मयोग का निरूपण करता है। इसलिए साधक के जीवन में 'भक्ति' साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रशंसनीय की प्रशंसा करना ही भक्ति है । Jain Education International तीर्थंकर भगवन्तों के गुणों की स्तुति करने से श्रावक को भी उनके गुणों को प्राप्त करने का मनोबल प्राप्त होता है। अहंकार कम होता जाता है और गुणों की प्राप्ति में अभिवृद्धि होती है। साधनामार्ग में साधक आगे बढ़ता है। शुभ भावों की प्राप्ति से दर्शन-ज्ञान प्राप्त होता है और उससे आत्मा में लगे कर्ममल की सफाई होने लगती है तथा अन्ततः वह निर्मल होकर वीतरागता को प्राप्त करती है । चतुर्विंशतिस्तव का मूल पाठ निम्न प्रकार है 15, 17 नवम्बर 2006 चतुर्विंशतिस्तव लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंधि केवली ॥१॥ उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीयलसिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥३॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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