Book Title: Utkirtan Sutra Ek Vivechan
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, __ _193 उत्कीर्तन सूत्र : एक विवेचन श्री प्रेमचन्द जैन चपलोद चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति या गुणानुवाद करना ‘उत्कीर्तन' है ! इस उत्कीर्तन से दर्शन (सम्यग्दर्शन) की विशुद्धि होती है। तीर्थंकरों का गुणानुवाद आध्यात्मिक शान्ति एवं आनन्द की प्राप्ति में सहायक होता है तथा साधना के उच्च शिखर पर आरोहण का मनोबल प्रदान करता है ! सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के मंत्री श्री प्रेमचन्द जी जैन के इस लेख में लोगस्स के पाठ की महत्ता उजागर हुई है। -सम्पादक वीतराग वाणी समग्रता लिए हुए है। उसी वीतराग वाणी को स्थानकवासी जैन परम्परा ३२ आगम प्रमाणरूप मानती है। चरम आगम आवश्यक सूत्र त्रिकाल साधना का परिचायक है। इसमें अतीत की आलोचना, वर्तमान में समभाव की साधना व अनागत के प्रत्याख्यान द्वारा कर्मों की निर्जरा की जाती है। अनुयोगद्वारचूर्णि में 'आवश्यक' शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है- 'सुण्णमप्पाणं तं पसत्यभावेहि आवासेतीति आवासं' अर्थात् जो आत्मा गुणों से शून्य है उसे प्रशस्त भावों (गुणों) से आवासित करे वह आवश्यक कहलाता है। आत्मा के हितार्थ जो क्रिया प्रतिदिन की जाती है, वह ही आवश्यक है। अनुयोगद्वार सूत्र में कहा गया है समणेणसावारण य अवस्संकायव्वं हवइ जम्हा। अंते अहो-निसस्स य तम्हा आवरसं नाम ।। अर्थात् साधु एवं श्रावक द्वारा नियमित रूप से दिन व रात्रि के अन्तिम मुहूर्त में जो साधना की जाती है वह आवश्यक है। आवश्यक के छः भेद किये गये हैं१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव (उत्कीर्तन) ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान ___ इन षडावश्यकों में प्रथम आवश्यक के बाद दूसरा आवश्यक है- उत्कीर्तन आवश्यक! आम बोलचाल की भाषा में इसको ‘लोगस्स' का पाठ भी कहते हैं। उत्कीर्तन का सामान्य अर्थ होता है- गुणगान या प्रशंसा। इस आवश्यक में किसी सामान्य पुरुष के गुणगान या प्रशंसा न करके उन महापुरुषों का गुणगान या प्रशंसा की गई है जिन्होंने रागादि आत्मरिपुओं का नाश करके केवलज्ञान प्रकट करते हुए अपनी आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5