Book Title: Upadhyaya Pad swarup aur Darshan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ उपाध्याय पद : स्वरूप और दर्शन २८१ . उपाध्याय शब्द की नियुक्ति करते हुए कितना सुन्दर रूप से कहा है--'उ' का अर्थ है-उपयोगपूर्वक । 'व' का अर्थ है-ध्यान युक्त होना। तात्पर्य यह है कि श्रुत-सागर के अवगाहन में सदा-सर्वदा उपयोगपूर्वक ध्यान करने वाले उज्झा (उवज्झाय) कहलाते हैं।' इस प्रकार अनेक आचार्यों ने उपाध्याय शब्द पर गम्भीरता के साथ विशद चिन्तन कर अर्थ व्याकृत किया है। जैन-आगम-साहित्य के परिशीलन से यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रमण-संघ में जैसा महत्त्व आचार्य का रहा है, वैसा महत्त्व उपाध्याय का भी रहा है। यह ध्रुव सत्य है कि उपाध्याय का पद आचार्य के बाद आया है किन्तु इस पद का गौरव किसी भी प्रकार से कम नहीं है। स्थानांग सूत्र में आचार्य और उपाध्याय इन दोनों के पाँच अतिशयों का उल्लेख हुआ है। जैन-संघ में आचार्य का जितना सम्मान व गौरव है, उतना ही सम्मान और गौरव उपाध्याय पद का है। जैसे आचार्य उपाश्रय में प्रवेश करते हैं तो उनके चरणों का प्रमार्जन किया जाता है, ठीक इसी प्रकार उपाध्याय के चरणों का भी प्रमार्जन किया जाता है, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इसी सूत्र में अन्यत्र यह भी बताया गया है कि आचार्य और उपाध्याय के सात संग्रह-स्थान बताये हैं, जिनमें गण में आज्ञा, धारणा प्रवर्तन करने का दायित्व आचार्य उपाध्याय दोनों पर है। आचार्य तो संघ को अनुशासित रखने की दृष्टि से चिन्तन करते हैं, जबकि उपाध्याय श्रमण संघ की ज्ञानविज्ञान की दिशा में अग्रगामी रहते हैं । उनका मुख्य कार्य है-श्रमण-संघ में श्रुतज्ञान की महागंगा प्रवाहित करना। जैगागमों में आचार्य की अष्टविध सम्पदाओं का वर्णन प्राप्त होता है, वहाँ यह भी बताया गया है कि आचार्य आगमों की अर्थ-वाचना देते हैं। आचार्यश्री शिष्य-समुदाय को आगमों का गुरु-गम्भीर रहस्य तो समझा देते हैं किन्तु सूत्र-वाचना का जो कार्य है, वह उपाध्याय के द्वारा सम्पन्न होता है । यही कारण है कि उपाध्याय को सूत्र वाचना प्रदाता के रूप में माना गया है। इसका अभिप्राय यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता एवं विशदता बनाये रखने का दायित्व उपाध्याय पर है। अनुयोगद्वारसूत्र में सूत्रोच्चारण के दोष बताते हुए उनसे आगमपाठ की सुरक्षा करने की सूचना प्रदान की गई है और पदों के शिक्षित, जित, स्थित विशेषण दिये गये हैं। संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है१. शिक्षित ३. जित ५. परिजित ७. घोषसम ६. अनत्यक्षर ११. अस्खलित २. स्थित ४. मित ६. नामसम ८. अहीनाक्षर १०. अव्याविद्धासर १२ अमिलित उ ति उवगरण वे ति वेयज्झाणएस्स होइ निद्दे से । एएण होइ उज्झा एसो अण्णो वि पज्जाओ।। -अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग २, पृष्ठ ८८३ । २. स्थानांगसूत्र, स्थान श२, सूत्र ४३८. स्थानांग, स्थान सूत्र ७, सूत्र ५४४, ४. दशाश्रुतस्कन्ध, चौथी दशा । ५. स्थानांगसूत्र ३१४१३२३ की वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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