Book Title: Upadhyaya Pad swarup aur Darshan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ भारतवर्ष के पुण्य प्रांगण में अनेक संस्कृतियों का उद्गम, संरक्षण एवं संवर्द्धन हुआ है किन्तु शत सहस्र लक्षाधिक संस्कृतियों में भारत की प्राचीन एवं मौलिक दो संस्कृतियाँ हैं—एक है श्रमण संस्कृति, दूसरी ब्राह्मण संस्कृति । इन दोनों संस्कृतियों में कहीं एकरूपता है तो कहीं अनेकरूपता भी परिलक्षित होती है, तथापि यह कहा जा सकता है कि ये दोनों एक-दूसरे के समीप हैं । उपाध्याय पद स्वरूप और दर्शन श्री रमेश मुनि शास्त्री [ राजस्थान केसरी श्री उपाध्याय पुष्कर मुनि के शिष्य ] श्रमण-संस्कृति जैन और बौद्ध धर्म से अनुप्राणित रही है। यह संस्कृति जीवन की संस्कृति है, इसकी समता सार्वभौम है। जैन एवं बौद्ध इन दोनों धाराओं ने अपने सुचिन्तन की सुशीतल जलधारा से इसको अभिसिंचित किया है। यह महिमामयी संस्कृति आचार और विचार के समानता की प्रसूता भूमि है, यही कारण है कि इसने अपने असि में चिर-अतीत की अद्भुत गरिमा को संजोए रखा । जैन श्रमण-संस्कृति अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के वैवारिक उदात्त दृष्टिकोण की विपुटी पर आधारित है। यह ऐसा प्रकाशस्तम्भ है, जिससे न केवल भारतीय जीवन अपितु सम्पूर्ण विश्व जीवन-दर्शन आलोकित है। इसकी वैचारिक उदारता दर्शन के क्षेत्र में एकान्तिक विचारणा का सदा प्रत्याख्यान करती है। वस्तुतः जैन संस्कृति व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति आग्रहशील है, अनुदार दृष्टिकोण के निर्मूलन के प्रयास के प्रति विशेष रूप से आस्वाशील है। जैन वाङ्मय 'में 'श्रमण' शब्द की अनेक व्याख्याएँ मिलती हैं । 'श्रम' शब्द अपने आप में अनेक तात्पर्यो एवं व्यापक अर्थ - गरिमा को समेटे हुए है। उससे अनेक रूप बनते हैं - श्रम, सम, शमन, सुमन । जो मोक्ष के लिये श्रम करता है वह श्रमण है । ज्योतिर्मय प्रभु महावीर का श्रमण संघ बहुत ही विशाल था । अनुशासन, संगठन, संचालन संवर्द्धन आदि की दृष्टि से उसकी अप्रतिम विशेषताएँ रही थीं। प्रभु महावीर के नौ गण थे। इन गणों की संस्थापना का प्रमुख आधार आगम साहित्य की वाचना एवं धार्मिक क्रियानुशीलता की व्यवस्था था । गणस्थ श्रमणों के अध्यापन एवं पर्यवेक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य गणधरों पर था जिन श्रमणों की अपन व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे सारे श्रमण एक गण में समाविष्ट थे, अध्ययन के अतिरिक्त अन्यान्य व्यवस्था में भी उनका साहचर्य एवं ऐक्यभाव था। जैन- परम्परा में गणधर का एक गौरवशाली पद है, किन्तु संघ व्यवस्था की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय, १. स्थानांग सूत्र, ६.६८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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