Book Title: Unke Prachin Jain Mandir Author(s): Rakeshdutt Dwivedi Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 6
________________ रहा जिसके स्थानपर नवीन मुखमण्डपका निर्माण किया गया है किन्तु चौकोर गूढ़मण्डप और उसके आठ स्तम्भों पर आधारित गोलाकार नाभिच्छन्द वितान अब भी अपनी भव्यताको सुरक्षित रखे हैं। पार्श्वमें खुलनेवाले द्वार भी पूर्ववणित मन्दिरकी संयोजनाके समान है। ___ इस मन्दिरके गर्भगृहका तल गूढमण्डपके तलसे लगभग तीस मीटर नीचा है जिसमें बनी हुई सीढ़ियोंसे उतरकर पहुँचा जाता है / गर्भगृहके अन्दर तीन विशाल तीर्थकर प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थापित हैं / इनका निर्माण चमकीले काले पत्थरसे किया गया है / इन तीनोंमें मध्यमें स्थित सबसे बड़ी प्रतिमा लगभग चार मीटर ऊँची है। पार्श्वमें स्थित एक प्रतिमाकी पीठिका पर उत्कीर्ण लेख उसकी स्थापनाकी तिथि विक्रम संवत् 1263 (1206 ई०) दर्शाता है। प्रतिमाओंके पीछेकी भित्ति पर दोनों ओर छोटे-छोटे जीने बने हुए हैं जिनके द्वारा मूत्तियोंका अभिषेक करनेके लिए ऊपर पहुँचा जा सकता है / यह विशेषता अन्य कई जैन मन्दिरोंमें भी देखी जा सकती है। मन्दिरके शिखरके ऊपरी भागका पर्याप्त जीर्णोद्धार किया गया है। फिर भी, उसकी ग्रीवाके नीचे का कुछ भाग अब भी थोड़ा-बहुत अपने पूर्वरूपमें सुरक्षित है। शिखरके चारों ओर निर्मित उरःशृंग और उपशृंग ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे शिखरकी ऊँचाईको धीरे-धीरे उठाते हुए उच्चतम स्तरपर पहुँचा रहे हैं। उरःशृंगों सहित शिखरका आकार खजुराहोके विश्वविख्यात मन्दिरोंके शिखरके समान दिखाई पड़ता है जिनके प्रभावक्षेत्रमें मालवाका यह भ-भाग रहा होगा। ऊन का पूर्ववर्णित दोनों जैन मन्दिर कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं। अपनी अनूठी कला-शैलीके अतिरिक्त, ये मन्दिर तत्कालीन धार्मिक सामञ्जस्य एवं सहिष्णुताकी भावनाके प्रतीक है जिसके फलस्वरूप हिन्दु मन्दिरोंके साथ ही इनका निर्माण और संरक्षण हो सका। चौबारा डेरा नं० 2 की स्थापत्य कला, विशेषतया मन्दिर पीठकी पटिकाओंके संयोजन, प्रवेशद्वारोंके सामने त्रिकमण्डप निर्माण, स्तम्भोंके अलंकरण तथा द्वारोंकी सजावट पर गुजरातके सोलंकी मन्दिरोंका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है इस मन्दिरके पीठ भागपर निर्मित गजपीठ और नरपीठकी पट्टिकायें सोलंकी मन्दिरोंकी विशेषतायें हैं जिनका समावेश गुजरात कलाके सम्पर्कका साथी है। इसके साथ ही, इसमें मालवाकी परमार कलाका भी योगदान है जिसके द्वारा ऊनके अन्य मन्दिरोंका निर्माण किया गया है। - 334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6