Book Title: Unke Prachin Jain Mandir
Author(s): Rakeshdutt Dwivedi
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊनके प्राचीन जैन मन्दिर राकेशदत्त त्रिवेदी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भोपाल मध्यप्रदेशके पश्चिमी निमाड़ जिलेमें ऊन नामक ग्रामका जैन अनुश्रुतियोंमें एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है । यह स्थान जिलेके मुख्यालय खरगोनसे पश्चिम दिशामें १६ किमी की दूरीपर स्थित है । यहाँ खरगोनसे जानेवाली मुख्य सड़कसे पहुँचा जा सकता है । जैन कथाओंके अनुसार जैनोंके कई निर्वाण क्षेत्रोंमेंसे ऊन भी एक क्षेत्र है जिसका प्राचीन नाम पावागिरि था। इसी स्थानपर सुवर्णभद्र और अन्य तीन जैन मुनियोंने निर्वाण प्राप्त करके इस स्थानको महत्त्व प्रदान किया था जिससे परवर्ती कालमें यह जैन तीर्थों की गणनामें आ सका। आज भी दिगम्बर जैनोंका एक विशाल मन्दिर और उससे सम्बन्धित धर्मशाला इस स्थानके आकर्षण हैं। यहाँ बड़ी संख्यामें जैन तीर्थयात्री आकर ठहरते हैं और पुण्यलाभके लिये पूजा-उपासना करते हैं। इसके अतिरिक्त, पुरातत्त्व जगतमें ऊनका महत्त्व एक विशाल मन्दिर समूहके लिये है जिनमेंसे लगभग बारह प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष ऊन ग्राममें और उसके आसपास आज भी देखे जा सकते हैं। ये मन्दिर अधिकांशतः टूटी-फूटी स्थितिमें हैं और कुछके तो स्थानमात्र पहचाने जा सकते हैं। फिर भी, जो कुछ बचा है, उससे इस स्थानके कलात्मक वैभव और मन्दिर निर्माण परम्परापर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मध्यप्रदेशमें ही नहीं, सारे भारतमें बहत कम ऐसे स्थान हैं जहाँ प्राचीन मन्दिरोंका इतना बड़ा समूह देखा जा सके। इन मन्दिरोंका निर्माण ११वी १२वीं सदीमें मालवाके परमार राजाओंके राज्यकालमें हुआ था जो अपनी स्थापत्य कलाप्रियता तथा कलात्मक एवं साहित्यिक अभिरुचिके लिये विख्यात हैं। इनमेंसे अधिकांश मन्दिरोंकी निर्माणशैली और स्थापत्य संयोजनको भूमिजशैली कहा गया है जिसकी पहचान विशेषतया उसके शिखर विन्यास और अलंकरणोंसे की जाती है। __ ऊनके मन्दिरोंमें दो मन्दिर जैनधर्मसे सम्बन्धित हैं। जिनमेंसे एकको चौबारा डेरा नं० २ या नहल अवरका डेरा और दुसरेको ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे पकारा जाता है। इन दोनों जैन मन्दिरोंकी स्थापत्यशैली भी ऊनके मन्दिरोंसे भिन्न है और दोनों अपनी विशेषताओंके कारण ऊनके मन्दिरोंसे विशिष्ट स्थान रखते हैं। यहाँपर इन्हीं दोनों मन्दिरोंकी स्थापत्य तथा कलात्मक विशेषताओंका उल्लेख करते हुये उनके ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्वको स्पष्ट करनेकी चेष्टा की गई है। चौबरा डेरा नं० २-इस प्राचीन जैन मन्दिरके अवशेष ऊनके उत्तरमें एक पथरीले टीलेपर स्थित है और ये खरगोनकी ओरसे गाँवमें प्रवेश करनेके पहले ही अपने भव्यपर खण्डित रूपमें दिखाई पड़ते हैं । इस उत्तराभिमुख मन्दिरको तलयोजनाको पीछेके मूलप्रसादकी ओरसे लेकर बाहरके मुख्य द्वार तक पाँच भागोंमें विभक्त किया गया है जिनको गर्भगृह, अन्तराल, गूढ़मंडप, त्रिकमण्डप और मुखचतुष्की कहते हैं । इन भागोंमेंसे गूढ़मण्डप मध्यमें स्थित होने, मुख्य भागोंमें बीचकी कड़ी होने तथा अपने सर्वाधिक बड़े - ३२९ - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकारके कारण विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण है । गूढ़मण्डपके दोनों पावोंमें एक-एक द्वार है जिनके सामने स्तम्भों पर आधारित मुखमण्डप अथवा मुखचतुष्की होनेके संकेत मिलते हैं (चित्र १ ) Shetatl C Meritage PFIN चित्र १. चौबारा डेरा नं० २, १२०० ई०, ऊन बाणीवि क आरए Before Sp निकली TEWIPE-IP चित्र २. चौबारा डेरा नं० २ : पीठ तथा वेदीबन्धकी अलंकृत पट्टिकायें मन्दिरके बाह्य और आन्तरिक दोनों अलंकरण बड़े प्रभावपूर्ण हैं । उँचाईपर स्थित मन्दिरकी ओर अधिक ऊँचाई प्रदान करनेके लिये उसके निम्न भागमें पीठ और वेदीबन्धका संयोजन किया गया है। जिनकी विविध पट्टिकायें अपने अलंकरणके लिये सराहनीय हैं। पीठकी निम्नतम दो सादी पट्टिकाओंके ऊपर अलंकृत पट्टिकाओं की रचना की गई है जिनको प्राचीन स्थापत्य ग्रन्थों में (नीचे की ओरसे) क्रमश: नाड़यकुम्भ, कर्णिका, ग्रासपट्टी, गजपीठ और नरपीठ नाम दिये गये हैं । इनके ऊपर वेदी बन्धकी पट्टिकायें हैं जिन्हें कुम्भ, ३३० म Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश और कपोतिकाके नामोंसे पहचाना जाता है (चित्र २)। इन पट्टि काओंमेंसे गजपीठ और नरपीठकी पट्रिकायें विशेष महत्त्व की हैं जिनका प्रचलन गुजरात और पश्चिम राजस्थानमें सोलंकी राजाओंके स्थापत्यमें बहुतायतसे देखा जा सकता है। मन्दिरके पीठ भागपर राजपीठका प्रतिरूपण राष्ट्रकूट कालीन ऐलोराके कैलाश मन्दिरका स्मरण दिलाता है जिसमें इस अलंकरणका पूर्वरूप देखा जा सकता है। नरपीठ पट्टिकापर अनेकों धार्मिक और लौकिक दृश्योंका चित्रण किया गया है। इसी पट्टिकापर संगीत, नृत्य, रतिचित्रोंके साथ समुद्रमन्थन ऊपाख्यान तथा रामायणके दृश्योंका अंकन भी सफलतासे किया गया है। एक दृश्यमें बालि-सुग्रीवकी दून्दयद्धमें रत दिखाया गया है जिनके साथ धनुषपर शर सन्धान करते हुये राम तथा उनके पीछे लक्ष्मणको अंकित किया गया है (चित्र ३)। यह अंकन जहाँ एक ओर रामायण कथाकी लोकप्रियताका साक्ष्य प्रस्तुत करता है, वहाँ दूसरी ओर व्यापक धार्मिक सहिष्णुताकी भावनाका परिचय देता हैं जिसके फलस्वरूप जैनमन्दिरमें इसका समावेश हो सका है। कुम्भभागपर बनी रथिकाओंपर जैन यक्षियोंकी प्रतिमायें अपने विविध रूपोंमें उत्कीर्ण की गई हैं। चित्र ३. बालि-सुग्रीव युद्ध, रामायणका दृश्य वेदीबन्धके ऊपर मन्दिरका भित्तिभाग, जिसे स्थापत्य ग्रन्थोंमें जंघाभाग कहा जाता है, स्थित है, जिसका निचला भाग मंचिकासे आरम्भ होकर ऊपर कपोतिकामें समाप्त होता है । जंघाभाग पर चारों ओर अलंकृत रथिकायें हैं जिनमें जैन-देवी देवताओं तथा भंगिमापूर्ण अप्सराओंकी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। मूल प्रसादके बचे हुये कर्ण भागों (कोनों) पर अष्ट दिग्पालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति; वरुण, वायु, कुबेर और ईशान) का प्रतिरूपण मिलता है। दुर्भाग्यवश मन्दिरका मुख्य शिखर पूर्णतया ध्वस्त हो चुका है, इसलिये बचे हुये अवशेषोंके माध्यमसे उसकी भव्यताका केवल अनुमान लगाया जा सकता है । काय उत्तरकी ओर मन्दिरके मुख्य द्वारके सम्मुख स्तम्भों पर आधारित मुखमण्डप और तीन भागोंमें विभाजित त्रिमण्डपका निर्माण किया गया है जिसके स्तम्भोंका संयोजन और मनोहर अलंकरण विशेष -३३१ - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपसे दर्शनीय है । इनमें से कुछ स्तम्भ निम्न भागमें चौपहल (भद्रक) हैं और ऊपरकी ओर वृत्ताकार हो गये हैं और कुछ स्तम्भ निम्न भागसे आठ पहलू (अष्टास्र) हैं और ऊपरकी ओर अलंकृत वृत्ताकारमें बदल गये हैं । अष्टास स्तम्भोंका ऊपरी भाग मूर्तिसहित लघु रथिकाओं, पर्णबन्ध, हंसमाला, ग्रासमुखों और वृत्ताकार पट्टियोंसे सुशोभित है जिनके ऊपर मानवाकृतियोंसे विभूषित स्तम्भशीर्ष छतको रोकनेवाले शिलापट्टोंके आधारका काम करते हैं (चित्र ४) । गूढमण्डपके बाहरी द्वारोंके सिरदलके मध्य ( ललाटबिम्ब) में कमलासनमें बैठी जैन प्रतिमा निर्मित की गयी है जिसके ऊपर पाँच लघुरथिकाओंमें जैन यक्षियोंकी मूर्तियाँ दर्शायी गयी हैं । द्वारोंके पार्श्वभाग पाँच शाखाओं में विभाजित किये गए हैं जिनको पत्रवल्ली, रत्नशाखा, स्तम्भशाखा आदिसे अलंकृत किया है । द्वारकी चौखट ( उदुम्बर) के मध्य में मन्दारक और उसके दोनों ओर कीर्तिमुखोंका प्रतिरूपण पश्चिमी भारतके जैन मन्दिरोंकी अलंकरण पद्धतिका अनुसरण करता है । त्रिमण्डपके द्वारको पार करते ही दर्शक गूढ़मण्डपमें प्रवेश करता है जिसके दो पार्श्वद्वार पूर्व और पश्चिम दिशाकी ओर खुलते हैं । गूढ़मण्डपकी भीतरी छत (वितान) आठ अठपहलू (अष्टास्र) स्तम्भों पर TOT ॐ Man चित्र ४. चौबारा डेरा मं० २, त्रिकमण्डपके स्तम्भोंका अलंकरण आधारित है जिनके ऊपर पत्रवल्लीसे अलंकृत सिरदल है। नाभिच्छन्द प्रकारका क्षिप्त वितान गूढमण्डपको ओर अधिक स्थान और भव्यता प्रदान करता है जिसमें ऊपरकी ओर घटते हुए वृत्ताकार पट्ट संयोजित किये गए हैं जिनमें सबसे ऊपर पद्मशिला या लटकता हुआ लम्बन रहा होगा । वितानके गोलाकार चारों - ३३२ - w Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर पहले अप्सराओंकी मूत्तियाँ विविध भावभंगिमाओंमें लगी हुई थीं जिनकी पीठिकायें वितानके निचले भागमें अब भी द्रष्टव्य हैं । गूढ़मण्डपके पिछले द्वारको पार करनेपर दर्शक गर्भगृहके सम्मुख अन्तरालमें प्रवेश करता है और उसके उपरान्त चौकोर गर्भगृहमें जिसके ऊपर शिखर बिलकुल नष्ट हो चुका है। गर्भगृहके द्वारका अलंकरण वैसा ही है जैसा कि गूढ़मण्डपके द्वारोंका है और इसके भी ललाटबिम्ब पर तीर्थकरकी प्रतिमा और उसके ऊपर पाँच रथिकाओंमें जैन यक्षियोंका प्रतिरूपण मिलता है ।। - इस मन्दिरसे उपलब्ध दो दिगम्बर जैन प्रतिमाओंको कई दशक पूर्व इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित रखनेके लिए पहुँचा दिया गया है। इनमेंसे एक मत्ति तीर्थकर शान्तिनाथकी है जिसकी पीठिका पर विक्रम संवत् १२४२ (११८५ ई०) की तिथि अंकित है। कायोत्सर्ग मुद्रामें निर्मित यह प्रतिमा सम्भवतः चौबारा डेरा नं० २ के जैन मन्दिरमें स्थापित थी जिससे इस मन्दिरका निर्माण काल निश्चित रूपसे ११८५ ई० ज्ञात होता है। ग्वालेश्वर मन्दिर यह जैन मन्दिर ऊन ग्रामके दक्षिणमें एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है और यह आज भी पूजाउपासनाके लिए प्रयोगमें आता है। सम्प्रति इसे शान्तिनाथ मन्दिरके नामसे जाना जाता है। मन्दिरके ANSAR चित्र-५. ग्वालेश्वर मन्दिर, १३०० ई०, ऊन बाहरी और भीतरों भागोंका जीर्णोद्धार इस प्रकार किया गया है जिससे मन्दिरकी प्राचीनता लुप्तप्रायः हो गयी है और उसकी वास्तविक पहचान तभी हो पाती है जब इसके मौलिक भागोंका सूक्ष्मतासे निरीक्षण किया जाय (चित्र-५)। विशेषतया मन्दिरके गूढ़मण्डप और मूलप्रसादका सूक्ष्म दृष्टिसे अध्ययन करनेपर इस प्राचीनताके चिह्न पहचाने जा सकते हैं। इस प्रकार इस मन्दिरको तलयोजना पूर्वोल्लिखित चौबारा डेरा नं० २ के समान ही रही होगी जिसका अनुमान प्राचीन अवशिष्ट भागोंको देखकर लगाया जा सकता है किन्तु बाहरी शिल्प अलंकरणमें यह अपेक्षाकृत सादा है। सामनेका मौलिक अर्धमण्डप अब शेष नहीं -३३३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा जिसके स्थानपर नवीन मुखमण्डपका निर्माण किया गया है किन्तु चौकोर गूढ़मण्डप और उसके आठ स्तम्भों पर आधारित गोलाकार नाभिच्छन्द वितान अब भी अपनी भव्यताको सुरक्षित रखे हैं। पार्श्वमें खुलनेवाले द्वार भी पूर्ववणित मन्दिरकी संयोजनाके समान है। ___ इस मन्दिरके गर्भगृहका तल गूढमण्डपके तलसे लगभग तीस मीटर नीचा है जिसमें बनी हुई सीढ़ियोंसे उतरकर पहुँचा जाता है / गर्भगृहके अन्दर तीन विशाल तीर्थकर प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थापित हैं / इनका निर्माण चमकीले काले पत्थरसे किया गया है / इन तीनोंमें मध्यमें स्थित सबसे बड़ी प्रतिमा लगभग चार मीटर ऊँची है। पार्श्वमें स्थित एक प्रतिमाकी पीठिका पर उत्कीर्ण लेख उसकी स्थापनाकी तिथि विक्रम संवत् 1263 (1206 ई०) दर्शाता है। प्रतिमाओंके पीछेकी भित्ति पर दोनों ओर छोटे-छोटे जीने बने हुए हैं जिनके द्वारा मूत्तियोंका अभिषेक करनेके लिए ऊपर पहुँचा जा सकता है / यह विशेषता अन्य कई जैन मन्दिरोंमें भी देखी जा सकती है। मन्दिरके शिखरके ऊपरी भागका पर्याप्त जीर्णोद्धार किया गया है। फिर भी, उसकी ग्रीवाके नीचे का कुछ भाग अब भी थोड़ा-बहुत अपने पूर्वरूपमें सुरक्षित है। शिखरके चारों ओर निर्मित उरःशृंग और उपशृंग ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे शिखरकी ऊँचाईको धीरे-धीरे उठाते हुए उच्चतम स्तरपर पहुँचा रहे हैं। उरःशृंगों सहित शिखरका आकार खजुराहोके विश्वविख्यात मन्दिरोंके शिखरके समान दिखाई पड़ता है जिनके प्रभावक्षेत्रमें मालवाका यह भ-भाग रहा होगा। ऊन का पूर्ववर्णित दोनों जैन मन्दिर कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं। अपनी अनूठी कला-शैलीके अतिरिक्त, ये मन्दिर तत्कालीन धार्मिक सामञ्जस्य एवं सहिष्णुताकी भावनाके प्रतीक है जिसके फलस्वरूप हिन्दु मन्दिरोंके साथ ही इनका निर्माण और संरक्षण हो सका। चौबारा डेरा नं० 2 की स्थापत्य कला, विशेषतया मन्दिर पीठकी पटिकाओंके संयोजन, प्रवेशद्वारोंके सामने त्रिकमण्डप निर्माण, स्तम्भोंके अलंकरण तथा द्वारोंकी सजावट पर गुजरातके सोलंकी मन्दिरोंका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है इस मन्दिरके पीठ भागपर निर्मित गजपीठ और नरपीठकी पट्टिकायें सोलंकी मन्दिरोंकी विशेषतायें हैं जिनका समावेश गुजरात कलाके सम्पर्कका साथी है। इसके साथ ही, इसमें मालवाकी परमार कलाका भी योगदान है जिसके द्वारा ऊनके अन्य मन्दिरोंका निर्माण किया गया है। - 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