Book Title: Ugradityacharya ka Rasayanke Kshetra me Yogadan
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 2
________________ उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान १८५ सिद्धान्त पल्लवित हो रहे थे। इस युग के चिकित्सीय या रासायनिक विवरण का कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, फिर भी अन्य विषयों के ग्रन्थों में उपलब्ध स्फुट विवरण ही हमें इस दिशा में कुछ आभास देते हैं। उदाहरणार्थ आचारांग,' स्थानांग व निशीथचूर्णी में भोजन के चार घटकों का उल्लेख आता है। दशवैकालिक में छह लवण, आर्सेनिक एवं पारद के लवणों को जलाकर बनने वाला शिरोरोगनाशी धूम्र तथा आशीविष एवं तालपुट विषों का उल्लेख है। स्थानांग* में चिकित्सा के चार अंगों, भोजन एवं विषपरिणामों, नौ विकृतियों (दही, घी आदि), सात धात गोलकों (हीरा एवं मणि भी उस समय धात माने जाते थे) एवं छह शस्त्रों का उल्लेख है। इनमें अग्नि (विस्फोटक), विष, लवण, स्नेह, अम्ल और क्षार-आधारित शस्त्र हैं जिनमें रासायनिक प्रक्रियायें समाहित हैं। इसमें आयुर्वेद के अष्टांगों के नाम भी आये हैं जिनमें जंगोली (विष), रसायन एवं क्षारतंत्र रसायन के ही अंग हैं। रामायण, महाभारत व पाणिनि के साहित्य' में भी ऐसे ही अनेक स्फुट विवरण पाये जाते हैं। ये सभी उद्धरण लगभग ई० पू० ५०० के हैं। इनसे पता चलता है कि शिक्षा के क्षेत्र में सामान्यतः औषध एवं रसायन विद्या को स्थान नहीं मिल पाया था। इसके विपर्यास में, जैन तीर्थंकर महावीर के द्वादशांगी उपदेशों में दृष्टिवाद" नामक बारहवें अंग के पूर्वगत नामक खंड में 'प्राणवाद' नामक एक स्वतंत्र क्षेत्र या पूर्व माना गया था जो औषध और रसायन का वर्णन करता था। उत्तरवर्ती काल में रसायन के अनेक रूप शिक्षा की बहत्तर कलाओं (हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, सजीव, निर्जीव, चर्म लक्षण, मणि लक्षण, अन्न-पान विधि, शोधन-पृथक्करण विधि आदि) में जैनाचार्यों ने सम्मिलित किये। यही नहीं, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में तो स्त्रियों की ६४ कलाओं में भी रसायन और वैद्यक कला को समाहित किया गया है। कौटिल्य के ईसापूर्व चौथी सदी के अर्थशास्त्र में षट्-धातुप्राप्ति, मणि परीक्षण, आसव एवं मदिरायें, रासायनिक युद्धकला, विषविद्या एवं अम्ल, क्षार तथा अनेक लवणों (हरिताल, हिंगुल आदि) का विवरण मिलता है एवं तत्कालिक रसायन विद्या की स्थिति का पता चलता है। इस विवरण में वैज्ञानिकता का पर्याप्त अंश प्रतीत होता है, फिर भी इसमें कलात्मकता १. ऋषि अमोलक; आचारांग सूत्र (अनुवादक), अमोल जैन ज्ञानालय, धूलिया, १९६०; पृ० १६२ २. शास्त्री, हीरालाल (अनु०); स्थानांग सूत्र, आगम प्र० समिति, व्यावर, १९८१, पृ० २९४. ३. सेन, मधु; ए कल्चरल स्टडी ऑव निशीथचूणि, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बाराणसी, १९७५, पृ०, १२४. ४. देखिये, दसवेयालिय पृ० ४४, ४५, ३८१, ४३२. ५. देखिये, स्थानाङ्ग पृ० ३९२, ५६२-६३, ६६९, ४०७, ९१६, ६३६. ६. विद्यालंकार, अत्रिदेव, आयुर्वेद का बृहत् इतिहास, सूचना, विभाग, लखनऊ, १९६०, पृ० ७६-९१. ७. आचार्य, पूज्यपाद; सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, १९७१, पृ० ८५. ८. जैन, जे० सी० तथा मेहता, एम० एल०; जैन साहित्य का बृहत् इतिहास-२, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, १९६६, पृ० २७ एवं ११७. ९-१०. विद्यालंकार-पूर्वोक्त, पृ० १२९. २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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