Book Title: Ugradityacharya ka Rasayanke Kshetra me Yogadan Author(s): Nandlal Jain Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 5
________________ १८८ डा० नंदलाल जैन आदान-प्रदान या संचरण की क्या स्थिति थी। यह ग्रन्थ नागार्जुनोत्तर युग में नवीं सदी का अन्यतम ग्रन्थ है जो उत्तरवर्ती प्रगति के लिये संपर्क-सूत्र का काम करता है। उग्रादित्य ने अपने ग्रन्थ में पात्रकेसरी, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद, दशरथ, मेघनाद और सिंहसेन नामक अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख किया है। इनके उत्तरवर्ती जैन विद्वानों में गुम्मटदेव मुनि, गुणाकर सूरि, पंडित आशाधर, ठक्कुर फेरू, हितरुचि आदि हैं जिन्होंने अपने अनुभवपूर्ण ग्रन्थों द्वारा सोलहवीं सदी तक उग्रादित्य के ज्ञान को आगे बढ़ाया है। यह वास्तव में अचरज की बात है कि ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ के विषय में प्रो० रे, सत्यप्रकाश और उपाध्याय के समान विद्वानों ने अपने विद्याओं के विकास-इतिहास विषयक प्रकरणों में मौन रखा है। इस दृष्टि से विद्यालंकार का विवरण प्रशंसनीय हैं । शाह ने भी इनका उल्लेख किया है। उग्रादित्य का परिचय 'कल्याणकारक' में उग्रादित्य ने अपना परिचय पृथक् से नहीं दिया गया है पर ग्रन्थ में प्राप्त स्फुट विवरणों से उनके विषय में पूर्ण तो नहीं, पर कुछ जानकारी मिलती है। नृपतुंग वल्लभेन्दु की राजसभा के उल्लेख से यह अनुमान लगता है कि वे नवीं सदी के पूर्वाद्धं में अवश्य ही रहे होंगे क्योंकि राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम के नृपतुंग कहे जाने का अनेक विद्वानों ने समर्थन किया है। इनका काल ८००-८७७ ई० माना जाता है। ये आदिपुराण-रचयिता जिनसेन (७८३ ई०) के शिष्य थे। संभवतः गणितज्ञ महावीराचार्य (८५० ई०), धवलाकार वीरसेनाचार्य (८१५ ई०) और शाकटायन इनके समकालीन हैं। प्रो० सालेतोर और नरसिंहाचार्य का भी यही मत है। इस आधार पर शाह एवं विद्यालंकार' का यह कथन समीचीन नहीं प्रतीत होता कि उग्रादित्य का समय ११-१२वीं सदी से पूर्व नहीं हो सकता । नागार्जुन का 'रसरत्नाकर' पर्याप्त पूर्व में प्रचार पा चुका था और उग्रादित्य ने अपनी शैली में उन्हीं रक्ष-विषयों का संक्षिप्त वर्णन किया है। __उग्रादित्याचार्य के जन्मस्थान, माता-पिता एवं पारिवारिक जीवन के विषय में अभी तक कोई विशिष्ट जानकारी नहीं मिल सकी है। तथापि, इनके ग्रन्थ के अनुसार, उनके गुरु श्रीनंदि थे और उन्होंने अपने ग्रन्थ का निर्माण त्रिकलिंग देश में स्थित रामगिरि पर्वतस्थ जिन मन्दिर में किया था। यह अनेक पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के संक्षेपण और अनुभवों के आधार पर लिखा गया है। कल्याणकारक का परिचय यह ग्रन्थ सखाराम नेमचन्द्र ग्रन्थमाला, शोलापुर से १९४० ई० में प्रकाशित हुआ है। इसकी भूमिका प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञ डा० गुणे ने लिखी है जिसमें जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद एवं रसशास्त्र के क्षेत्र में किये गये योगदान का समीक्षात्मक इतिहास दिया गया है। इसी के आधार पर अन्य उत्तरवर्ती विद्वानों ने एतद्विषयक उल्लेख दिये हैं। यह एकमात्र ग्रन्थ ही उग्रादित्य की कीर्ति को अमरत्व प्रदान करता है। इस ग्रन्थ में २५ परिच्छेद और २ परिशिष्टाध्याय हैं। मुख्यतः यह आयुर्वेद ग्रन्थ है और इसमें चिकित्साशास्त्र के आठों अंगों का वर्णन है। इसमें रासायनिक महत्त्व की अनेक बातें हैं । १. विद्यालंकार, पूर्वोक्त, ९ पृ० ३३४-४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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