Book Title: Ugradityacharya ka Rasayanke Kshetra me Yogadan Author(s): Nandlal Jain Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 9
________________ १९२ डा० नंदलाल जैन (अ) स्थावर, वनस्पति एवं पार्थिव विष-ये जड़, पत्र, पुष्प, फल, छाल, दूध, निर्यास, रससार, कंद एवं धातु विष के रूप में दस प्रकार के हैं। कनेर, गुंची, कचनार, धतूरा, अकौवा, गोंद, कालकूटादि, कंद और संखिया इसी कोटि के विष हैं। इनका प्रभाव सात चरणों में मारक रूप ग्रहण करता है। (ब) जंगम या प्राणिज विष-ये प्राणि शरीर की आँख, श्वासोच्छवास, दाढ़, लार, मूत्र, मल, शुक, नख, वात, पित्त, गुद, मुख, दंत शूक (डंक), शव और अस्थि के माध्यम से सोलह प्रकार से निर्गमित होते हैं। ये सांप, बंदर, पागल कुत्ता, शिंशुमार, छिपकली, चूहा, गोंच, मक्खी, मच्छर, विशिष्ट-मछलियों एवं शवों में पाये जाते हैं । इनका विष दंश या स्पर्श स्थान में ४५० काल मात्रा तक रहकर अपना पूर्ण प्रभाव पूर्वोक्त सात चरणों में प्रदर्शित करता है। यहाँ काल की मात्रा की व्याख्या नहीं की गई है। (स) कृत्रिम विष-यद्यपि इसके विषय में ग्रन्थ में कोई विवरण नहीं मिलता। फिर भी इसके अन्तर्गत ऐसे पदार्थों को लिया जा सकता है जो रसशाला में तैयार किये जा सकें। वर्तमान पोटैसियम सायनाइड, कार्बन मोनोक्साइड, मेथिलियम सायनाइड आदि को इस कोटि में ही रखना चाहिये । यद्यपि ये उस युग में अनुपलब्ध थे। विष की चिकित्सा वमन, विरेचन एवं औषध के रूप में बताई गई है। विषैले जीवों के काटने पर अन्तः प्रविष्ट विष के लिये बंधन, रक्तमोक्षण, अग्निजलन या जलौकाचूषण की क्रियायें प्राथमिक रूप से बताई गई हैं। पारद रसायन पारद और उसके विभिन्न यौगिक और मिश्रण जीवन को स्वास्थ्य एवं आयुष्य प्रदान करते हैं। इस आधार पर भारत में रसतंत्र ही चल पड़ा था जिसमें कुछ चामत्कारिता का भी अंश था। लेकिन इस तंत्र से रसायन के विकास में बड़ी सहायता मिली है। भारत में रसायन का विकास रसतंत्र के माध्यम से ही सोलहवीं सदी तक होता रहा है। उग्रादित्य इस तंत्र की बाल्यावस्था में हुए हैं। संभवतः उन्हें नागार्जुन का रसरत्नाकर सुलभ नहीं हो सका था, इसीलिये पारद-रसायन से संबंधित उनका विवरण प्राथमिक स्तर का ही माना जायगा । नागार्जुन के अठारह संस्कारों की तुलना में पारद के आठ महासंस्कारों का ही यहाँ वर्णन हैं : स्वेदन, मर्दन, धातुमिश्रण, सम्मिश्रण, बंधन, गर्भद्रावण, रंजन एवं सारण। ये संस्कार छह क्रियाओं के माध्यम से संपन्न होते हैं - मूर्च्छन (ठोसीकरण), मारण (भस्मकरण), बंधन (यौगिकीकरण एवं सम्मिश्रण), तापन, वासन एवं कासन । पारे को गुड़ के साथ मर्दित कर मूच्छित किया जाता है। कैंत के फल के रस से उसका मारण होता है। रसबंधन रसशाला में किया जाता है। दोलायंत्र की सहायता से पारद में अनेक पदार्थ मिलाकर एवं घोंटकर उसे स्वेदित (अधःपातित) करते हैं और उसे बंधन-योग्य बनाते हैं। शुद्ध पारे में सुवर्णचूर्ण मिलाकर घोंटने और छानने पर मिश्ररस प्राप्त होता है। इसमें विभिन्न वर्गों के पदार्थ मिलाकर कांजी के दोलायंत्र में स्वेदित करने पर भी रसबंध १. कल्याणकारक अध्याय, २४ पृ० ६६९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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