Book Title: Tin Krutiya Author(s): Vinaysagar Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 1
________________ जून - २०१२ श्री कीर्तिरत्नसूरि विनिर्मित तीन कृतियाँ __- म. विनयसागर श्री कीर्तिरत्नसूरि की तीन लघु कृतियाँ इस निबन्ध में दी जा रही हैं । उन कृतियों पर क्रमशः विचार किया जाएगा । आचार्य कीर्तिरत्नसूरि जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे । उन्हीं से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । इनके पिताका नाम देपमल्ल और माता का नाम देवलदे था । ये शंखवालेचा गोत्र के थे । वि.सं. १४४९ चैत्र सुदि ८ को कोरटा में इनका जन्म हुआ । ये अपने भाइयों में सबसे छोटे थे । १३ वर्ष की उम्र में इनका विवाह होना निश्चित हुआ और ये बारात लेकर चले भी, किन्तु मार्ग में इनके सेवक का दुःखद निधन हो गया जिससे इन्हें वैराग्य हो गया और अपने परिजनों से आज्ञा लेकर वि.सं. १४६३ आषाढ़ वदि ११ को जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षित हो गये और कीर्तिराज नाम प्राप्त किया । अल्पसमय में ही विभिन्न शास्त्रों में निपुण हो गये तब पाटण में जिनवर्धनसूरि ने इन्हें वि.सं. १४७० में वाचक पद प्रदान किया । __कीर्तिराज उपाध्याय संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । वि.सं. १४७३ में जैसलमेर में रचित लक्ष्मणविहारप्रशस्ति इनकी सुललित पदावली युक्त रमणीय कृति है । (द्रष्टव्य० जैनलेखसङ्ग्रह, भाग-३) । सं. १४७६ में रचित अजितनाथजपमाला चित्रस्तोत्र चित्रालङ्कार और श्लेषगभित प्रौढ़ रचना है । वि.सं. १४८५ में रचित नेमिनाथमहाकाव्य इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है । इनके अतिरिक्त संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं। आपकी विद्वत्ता से प्रभाविक होकर आचार्य जिनभद्रसूरि ने वि.सं. १४९७ माघ सुदि १० को जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान कर कीर्तिरत्नसूरि नाम रखा । वि.सं. १५२५ वैशाख वदि ५ को वीरमपुर में कीर्तिरत्नसूरिका निधन हुआ ।Page Navigation
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