________________
संस्कृत साहित्य आज जिस रूप में उपलब्ध होता है, उसमें गद्य की अपेक्षा पद्य काव्यों की संख्या अधिक है। इसके कई कारण हो सकते हैं। पद्य को स्मरण करना अधिक सरल होता है और छन्दों की लय सामान्य जन को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। इसके विपरीत गद्य का पाठ श्रमसाध्य होता है और उसे स्मरण रखना कष्टसाध्य । स्मृति की बात यहाँ इसलिए कहना जरूरी है कि मुद्रण कला के आविष्कार के पूर्व ग्रन्थ हाथ से लिखे जाते थे, इसलिए सर्वजन सुलभ नहीं थे। काव्य के दृश्य एवं श्रव्य रूपी विभाजन में भी इसी बात का संकेत मिलता है। अभिनय द्वारा मंच पर उपस्थापित काव्य दृश्य काव्य था और उसके अतिरिक्त समस्त साहित्य श्रवण पर आधारित था, जहाँ काव्य का पाठ सहृदयों के लिए किया जाता था। संभवत: इसी कारण से गद्य काव्य की रचना को पद्य की अपेक्षा कठिन माना गया। 'गद्यं कवीनां निकर्ष वदन्ति' उक्ति भी इसी बात की ओर संकेत करती है। सुप्रसिद्ध सुबन्धु, दण्डी एवं बाण जैसे कवियों के अतिरिक्त गद्यकाव्य लेखकों की ओर आधुनिक काल में अध्येताओं का ध्यान कम गया है। दशम शताब्दी में धनपाल नामक कवि हुए जिन्होंने तिलकमञ्जरी नामक गद्यकाव्य की रचना की। ये जैन कवि थे । अतः संस्कृत के साथ ही प्राकृत एवं अपभ्रंश में भी इन्होंने रचना की। इनका तिलकमञ्जरी काव्य कथा की कोटि में रखा जाता है। इसकी वस्तु कल्पना प्रसूत है और बाण के परवर्ती अनेक कवियों की तरह इनकी रचना भी बाण की शैली से प्रभावित है।
आज जब युवा वर्ग सरल मार्ग से लक्ष्य तक पहुँचने में प्रवृत्त है तब किसी अल्पप्रसिद्ध एवं अतिन्यून विश्लेषण का आधार रहे ग्रन्थ को शोध के लिए चुनना साहसपूर्ण कार्य कहा जाएगा। डॉ. विजय गर्ग ने तिलकमञ्जरी पर शोध ही नहीं किया, समालोचना के लिए सौन्दर्य को विवेचन का आधार बनाया है। यह चयन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि परम्परा प्राप्त गुण, दोष, रस, अलंकार आदि खण्डों में विभाजित समालोचना के साथ आधुनिक सौन्दर्य शास्त्रीय दृष्टि का भी समावेश भी इसमें किया गया है। यह समन्वयपरक समालोचना संस्कृत साहित्य के लिए आवश्यक भी है और उपयोगी भी । 'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्' कालिदास की इस सुप्रसिद्ध उक्ति के अनुसार प्राचीन को ही एकमात्र आदर्श मानना नवीन चिन्तन में बाधक का काम करता है । इसलिए सौन्दर्य को काव्य समालोचना का आधार बनाना डॉ. विजय गर्ग की पूर्वग्रह मुक्त शोध दृष्टि का
(v)