Book Title: Terapanthi Jain Vyakaran Sahitya
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ ० ० ३३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड आचार्यों द्वारा निर्मित और कोई व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। 'भिक्षुशब्दानुशासनम्' तेरापंथ संघ का अपना व्याकरण है | वि०सं० १९८८ में इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ था । इसके निर्माण का एक स्वतन्त्र इतिहास है, जिसका उल्लेख यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा । राजस्थान की लोकभाषा तृतीय आचार्य श्री रामचन्द्र तेरापंथ संघ के साधु-साध्वियों का प्रारम्भिक विहार क्षेत्र राजस्थान रहा है राजस्थानी है अतः अध्ययन, अध्यापन और साहित्य-रचना का क्रम राजस्थानी में चला । जी के समय भावी आचार्य श्री जीतमलजी (जयाचार्य) ने संस्कृत विद्या में पदन्यास किया। पंचम आचार्य श्री मघवागणी को संस्कृत भाषा विरासत में प्राप्त हुई। उन्होंने सारस्वत, चन्द्रिका, चान्द्र, जैनेन्द्र आदि व्याकरण ग्रन्थों का विशद अध्ययन किया । अष्टमाचार्य श्री कालूगणी को दीक्षित करने के बाद उनको भी संस्कृत भाषा के अध्ययन में नियोजित किया गया, किन्तु क्रमबद्धता न रहने से उसमें पर्याप्त विकास नहीं हो सका । आचार्य बनने के बाद कालूगणी ने संस्कृत भाषा को काल में उन्होंने अनुभव किया कि सारस्वत, चन्द्रिका आदि अपूर्ण पल्लवित करने का भरसक प्रयास किया। अध्यापनव्याकरण हैं । सारकौमुदी के आधार पर उस अपू को भरने का प्रयास किया गया, पर पूरी सफलता नहीं मिली। इसके बाद उन्हें विशालकीर्तिगणी द्वारा रचित 'विशालशब्दानुशासनम् ' प्राप्त हुआ । इस व्याकरण का व्यवस्थित अध्ययन प्रारम्भ हुआ, किन्तु बीच-बीच में कुछ स्थल समझने में कठिनाई महसूस होने लगी। सरदारशहर में आशुकविरत्न पण्डित रघुनन्दनजी का योग मिला। उनके पास कुछ साधुओं ने हेमशब्दानुशासन का अध्ययन प्रारम्भ किया और कुछ साधुओं ने विशालशब्दानुशासन का हेमशब्दानुशासन का क्रम ठीक था, अतः उसका अध्ययन व्यवस्थित रूप से चलता रहा । विशालशब्दानुशासन अष्टाध्यायी के रूप में था । वृत्ति के अभाव में सूत्रगत रहस्य समझ में नहीं आ सके । aratमुदी प्रक्रिया का आधार पुष्ट नहीं था । अतः एक बार कालूगणी ने कहा - विशालशब्दानुशासन की बृहद्वृत्ति बन जाए तो कितना अच्छा हो। आचार्यश्री के निर्देशानुसार पण्डित रघुनन्दनजी ने काम पूरा करने का संकल्प किया। वि०सं० १९८१ में काम प्रारम्भ हुआ । पाणिनीय अष्टाध्यायी, सिद्धान्तकौमुदी, सारकौमुदी, सारस्वत, सिद्धान्तचन्द्रिका, हेमशब्दानुशासन आदि अनेक ग्रन्थों की वृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन करके एक नई वृत्ति तैयार करने का निर्णय किया गया । इस काम में पण्डितजी के अनन्य सहयोगी थे मुनिश्री चौथमलजी (दिवंगत ) । वे प्रतिदिन आठ घंटा का समय इनमें लगाते थे । श्री भिक्षुशब्दानुशासनम् व्याकरण में किसी प्रकार की न्यूनता न रहे, इस दृष्टि से सवृत्तिक सूत्र तैयार किए गए। कुछ साधुओं को उनका अध्ययन विशेषरूप से कराया गया । अध्ययनकाल में नई जिज्ञासाएँ पैदा हुईं और फिर संशोधन किया गया । एक बार इसे सम्पूर्ण रूप से तैयार करके मुनिश्री चौथमलजी ने स्वयं इसका अध्ययन कराया। विद्यार्थी साधुओं की शंकाओं से इसमें पुनः परिवर्तन की अपेक्षा महसूस हुई। इन सब परिवर्तनों और संशोधनों का परिणाम यह हुआ कि 'विशालशब्दानुशासन' का मूल रूप प्रायः बदल गया । रूप- परिवर्तन के साथ नाम परिवर्तन भी आवश्यक समझा गया, अतः तेरापंथ संघ के आद्यप्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु के नाम पर उस नवनिर्मित ग्रन्थ का नाम 'भिक्षुशब्दानुशासन' रखा गया । भिक्षुशब्दानुशासन पर पूर्व व्याकरणों का प्रभाव है, पर इसे उनके विवादास्पद स्थलों से बचाने का प्रयास किया है । ग्रन्थकार का उद्देश्य अपने ग्रन्थ को अपेक्षाकृत सरल बनाने का रहा है। सरलता के साथ इसकी शैली में संक्षेप भी है। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अपनी सम्मतियां भेजी है। उनके अनुसार लघुसिद्धान्तकौमुदी के हल् सन्धि प्रकरण में ४१ सूत्रों और कई वार्तिकों से जो काम होता है वह इस व्याकरण में २३ सूत्रों से ही हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12