Book Title: Tattvasara
Author(s): Dayasagarji
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 3
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय तत्त्व के स्वगत तत्त्व और पर - गत तत्त्व इस तरह दो भेद किये जाने पर भी ग्रंथकार का मुख्य दृष्टिकोण इस ग्रंथ में स्व-गत तत्त्व का विवेचन करना यही रहा है । स्व-गत तत्त्व के भी दो भेद सविकल्प और अविकल्प इस प्रकार किये गये हैं । उनमें भी अविकल्प स्व-गत तत्त्व का ही प्रधानतया वर्णन करने का ग्रंथकार का दृष्टिकोण या उद्देश रहा है और उस अविकल्प स्व-गत तत्त्व की प्राप्ति के लिये निर्ग्रन्थपद धारण करने की प्रेरणा की गयी है । सारांश, अविकल्प स्व-गत तत्त्व का यहां विस्तार से परिचय है और तत्प्राप्यर्थ निर्ग्रन्थ पद धारण करने के अर्थ प्रेरणा भी है । स्व-गत तत्त्व की अविकल्प दशा को ही समाधि, योग, ब्राह्मीदशा आदि नामों से कहा है । इस दृष्टि से विचार करने पर यह एक रहस्य ग्रंथ है और इसमें समाधि का, योग का, ब्राह्मीदशा का रहस्य प्रगट किया है । ऐसे रहस्यों का उद्घाटन पात्र व्यक्तियों के लिए ही होता है । जो निर्ग्रन्थ पदधारणोत्सुक है या जो निर्ग्रन्थ मुनि बन चुके हैं किन्तु अविकल्प स्व-गत तत्त्व के आनंदरसास्वाद से अभी वंचित हैं उनके लिये यह ग्रन्थ महान मार्ग प्रदर्शक है । ३३२ सर्वप्रथम मंगलाचरण - गाथा में वंदन एक सिद्ध भगवान को नहीं अपितु अनेक सिद्धों को किया है । इससे दो बातें सिद्ध हो जाती हैं। पहली बात यह कि यह अध्यात्म प्रधान महान् ग्रंथ होने से यहाँ पूर्ण आदर्श रूप जो सिद्ध भगवान उन्हीं को वंदन करना समुचित है । दूसरी बात यह कि एकेश्वरवादी अन्यान्य लोग एक ही ईश्वर मानते हैं वैसी कल्पना जैन दर्शन में नहीं है । जैन दर्शन में हर एक सुपात्र भव्यात्मा यथार्थ व निर्दोष पुरुषार्थ से आत्मसिद्धि कर सिद्धपद - परमात्मपद प्राप्त कर सकता है । मुक्ति का द्वार सबके लिए खुला हुआ है । अतः परमात्मा या सिद्ध एक नहीं अनेकों होने से सिद्धों को वंदन किया है। मंगलाचरण में ही सिद्धों ने सिद्धि किस उपाय से प्राप्त की बताने के लिए गाथा के पूर्वार्द्ध में बताया है कि उन्होंने ध्यान की अग्नि में अष्ट कर्मों को दग्ध कर निर्मल सुविशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त किया अर्थात् सिद्धपद प्राप्ति का उपाय है ध्यान। इससे एक दृष्टि से ग्रंथकार ने यह भी सूचित किया है कि यह ' तत्त्वसार ' ग्रंथ ध्यान ग्रंथ है। पूरे ग्रंथ में ध्यान का ही प्रमुखता से वर्णन आया हुआ होने से इस ग्रंथ को ध्यान ग्रंथ - A Book of meditation या योग रहस्यशास्त्र Mysterious science of Yoga कह सकते हैं । जैन धर्म में जैसे विश्वश्रेष्ठ धर्म में जो कुछ मौलिक ध्यानग्रंथ या योगग्रंथ हैं उनमें इस ग्रंथ का स्थान भी उच्च श्रेणी में है । यह संक्षेप :-- प्रथम गाथा के बाद पूर्वाचार्यों ने तत्त्वों के बहुत भेद भी कहे हैं किन्तु यहाँ स्व-गत तत्त्व और र-तत्त्व अर्थात निजआत्मा और पंचपरमेष्ठी इस तरह तत्त्व के दो ही भेद हैं । परगत तत्त्व जो पंच परमेष्ठी उनकी भक्ति बहुपुण्य बंध का हेतु है और परंपरा से वह मोक्षका कारण भी है। स्व-तत्त्व ' सविकल्प' और ' अविकल्प' इस तरह दो भेद हैं । सविकल्प स्व-गत तत्त्व आस्रव से सहित है और अविकल्प स्व-गत तत्त्व आस्रव से रहित है इसका स्पष्टीकरण है । इस ग्रंथ का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है आस्रव रहित अविकल्प स्व-गत तत्त्व । वह अविकल्प स्व-गत तत्त्व क्या है और कैसा है। इसका बहुत सुंदरता से वर्णन है जो कि मार्मिक है। आठवी गाथा में उसके नामांतर बताए हैं । तत्त्वों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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