Book Title: Tattvasara Author(s): Dayasagarji Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 1
________________ तत्त्वसार श्री क्षु. दयासागरजी एक महान आध्यात्मिक ग्रंथ मंगलमय वस्तुओं में सर्वोत्कृष्ट वस्तु जगत में कौनसी है कि जिसके अवलंब से आत्मा का सदा के लिए ही कल्याण हो ? यह समस्या विश्व के मनुष्यों के सामने अनादि काल से उपस्थित है और उपस्थित रहेगी। किन्तु विचारशील पुरुषों ने इस समस्या को सुलझाया है। उसका प्रयोग भी किया है तथा सुयोग्य फल भी प्राप्त किया है। फिर भी यह समस्या जगत में सदा ही बनी क्यों रहे ? इसका उत्तर संभवतः यह है कि जगत के अनंत जीवोंमें से अत्यंत विरले ही पुरुष उन महापुरुषों की वाणी की तरफ ध्यान देते हैं; महान ग्रंथ 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा है। विरला णिसुणहि तच्चं, विरला जाणंति तच्चदो तच्चं ॥ विरला भावहि तच्चं, विरलाणं धारणा होहि ॥२७९॥ अर्थात विरले ही जीव तत्त्व को सुनते हैं; सुनने पर भी विरले ही तत्त्वतः तत्त्व को जानते हैं; जानने पर भी विरले ही महाभाग उसकी भावना करते हैं और सब विरले ही श्रेष्ठात्माओं को उसकी धारणा होती है। एक तरह से जगत के दुखों का कारण इस गाथा में ठीक ठीक कहा है। इस अनादि-अनंत विश्व में जीव जन्म लेते हैं—बडे होते हैं आजीविकार्थ यत्न करते हैं एक परिवार बनाते हैं कुछ बाल-बच्चों को जन्म देते हैं-वृद्ध होते हैं--एक दिन मर जाते हैं। क्या यही यथार्थ जीवन है ? पशु-पक्षी-कृमिकीटकादि भी आहार-भय-मैथुन-परिग्रह इन चार संज्ञाओं की कमें ही अपनी गाडी चलाते हैं। तो फिर यथार्थ जीवन कौनसा है ? ऐसी तत्त्व जिज्ञासा तो कमसे कम उत्पन्न हुए विना कल्याण का सत्य प्रारंभ असंभव है । हम स्वयं स्वयं ही के बारे में कितनाही कम जानते हैं । एक आंग्ल चिंतक ने कहा है “How little do we know that which we are i” अर्थात हम कितना कम जानते हैं जो कि हम स्वयं ही है। मैं वास्तव में कौन हूँ ? यहाँ मैं कहाँ से आया ? मेरा सत्य स्वरूप क्या ? मेरा सर्वोच्च कर्तव्य क्या ? मृत्यु के बाद क्या है ? आदि प्रश्नों के जिज्ञासा की महाज्वाला अंतर में प्रज्वलित नहीं होती तबतक कल्याणपथ का स्पर्श तक नहीं होता। जिस महान् ग्रन्थ का नीचे किंचित् परिचय प्राप्त कराना है वह 'तत्त्वसार' ग्रन्थ तो बहुत महान् है। प्रारंभिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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