Book Title: Tattvasara
Author(s): Dayasagarji
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 6
________________ तन्वसार ३३५ उसमें रमणकर शुद्ध चिदानन्द लाभ करना चाहिए। इस दृष्टि से पंच-परमेष्ठी की भक्ति में सुपरिपक्व बने पात्र आत्माओं को निग्रंथ पद के लिए प्रेरणा करना अविकल्प निज-तत्त्वोपलब्धि का रहस्य बता देना यह ग्रन्थ की पाँचवी विशेषता है। ग्रन्थ का रचना कौशल्य, भावगांभीर्य और आध्यात्मिक सौंदर्य भी अत्यंत अवलोकनीय है। गम्भीर दृष्टि से देखने पर समस्त चौहत्तर गाथाओं में पूर्ण सुसंगति और सुसूत्रता का सुन्दर प्रवाह दृष्टिगत होता है। जिससे आचार्यवर का रचना चातुर्य गुण प्रकट होता है। यह इस ग्रन्थ की छठी विशेषता है। प्रसादगुणयुक्त सीधि-सादी-सरल गाथाएँ, अध्यात्म रस से ओतप्रोत माधुर्य गुण से अलंकृत भाषा और पुरुषार्थ की प्रेरणादि करते समय प्रकट हुआ ओज गुण आदि साहित्य के भी उचित गुण इस रचना में शोभायमान हैं यह भी विशेषता है। इस प्रकार इस महान् आध्यात्मिक प्रन्थ की कुछ प्रमुख विशेषताओं का विहंगमावलोकन किया। ग्रंथकार-परिचय इस महान् आध्यात्मिक ग्रंथ के रचयिता हैं अध्यात्म मर्म के महान् आचार्य श्रीमद् देवसेनाचार्य । आपके जन्मस्थान का वर्णन नहीं मिलता किन्तु आरके रचित 'दर्शनसार' ग्रंथ के अंत में वह ग्रंथ 'धारा' ( मालवा ) नगरी के भ. पार्श्वनाथ मंदिर में रचित हुआ ऐसा उल्लेख होने से वहीं कहीं आसपास में आपका जन्मस्थान हो सकता है। किन्तु साधुजन भ्रमणशील होने से वहाँ के वास्तव्य में ग्रंथ रचा होगा यह भी कह सकते हैं । अतः जन्मस्थान के निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन अनेकों बातों पर से आप दक्षिण भारत निवासी होंगे यों प्रतीत होता है। काल विक्रम की १० वीं शताब्दि है यह 'दर्शनसार' ग्रंथ से सिद्ध है। 'दर्शनसार ' ग्रंथ से आप के गुरु श्री विमलसेन थे यह भी स्पष्ट सिद्ध है। 'दर्शनसार ' ग्रंथ के जैनाभास खंडन से आप ' मूलसंघ' के आचार्य थे यह प्रतीत होता है। भ. कुंदकुंद स्वामि की महिमा को आपने दर्शनसार की ४३ वी गाथा में गाया है जिससे आप कुंदकुंदाम्नाय के थे ऐसा स्पष्ट होता है। आप बहुश्रुत थे। आपकी सारी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। (१) दर्शनसार (२) भाव संग्रह (३) आलाप पद्धति (४) नयचक्र (५) आराधनासार (६) तत्त्वसार आदि रचनाएँ आज उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त 'ज्ञानसार' व 'धर्मसंग्रह' नाम के ग्रंथों का भी आपके नाम पर उल्लेख मिलता है किन्तु ये ग्रंथ अभी अनुपलब्ध हैं। तात्पर्य आचार्यवर्य श्रीमद्देवसेनाचार्य मूलसंघीय, कुदकुंदाम्नायी, श्रीविमलसेन गुरु के शिष्य, बहुदर्शन परिचित, न्याय के गंभीर विद्वान, कर्मसिद्धांत के सूक्ष्म ज्ञानी, सफल विपुल ग्रंथ निर्माणक महान ग्रंथकार व जैनाचार्य थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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