Book Title: Tattvarthvrutti Ek Adhyayan Author(s): Udaychandra Jain Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 2
________________ २: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ ज्ञान कितना व्यापक था इसका पता तत्त्वार्थवृत्ति में उद्धृत वाक्योंसे चलता है । तत्त्वार्थवृत्तिमें जिन अनेक ग्रन्थोंके श्लोक, गाथा तथा गद्यात्मक वाक्य उद्धत हैं उनमेंसे कई उद्धरण ऐसे हैं जिनके मलग्रन्थोंका पता विद्वान् सम्पादकको भी नहीं चल सका है । इससे ज्ञात होता है कि उनका अध्ययन और ज्ञान कितना विशाल था। श्रुतसागरसूरि मूलसंघके बलात्कारगणमें विक्रमकी सोलहवीं शताब्दीमें हुए हैं । इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था। श्रुतसागरसूरिने अपनेको कलिकालसर्वज्ञ , कलिकालगौतम, व्याकरणकमलमार्तण्ड, तार्किकशिरोमणि, परमागमप्रवीण, नवनवतिमहा-महावादि विजेता आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है। इन्होंने तत्त्वार्थवृत्ति के अतिरिक्त जिन सहस्रनामटीका, औदार्य चिन्तामणि, व्रतकथाकोश, तत्त्वत्रय-प्रकाशिका आदि अन्य कई ग्रन्थोंकी रचना की थी। तत्त्वार्थवृत्तिकी विशेषता ___ तत्त्वार्थवृत्ति तत्त्वार्थसूत्रके तात्पर्यको स्पष्ट करनेवाली एक विस्तृत टीका है जो परिमाणमें सर्वार्थसिद्धिसे भी बड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह सर्वार्थसिद्धिकी व्याख्या हो । इसमें पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ पूराका पूरा समाविष्ट हो गया है। इसमें सर्वार्थसिद्धिके अनेक पदोंकी व्याख्या, सार्थकता, विशेषार्थ आदि विपुल मात्रामें उपलब्ध होते हैं । इसके साथ ही इसमें सर्वार्थसिद्धिके सत्रात्मक वाक्योंके अभिप्रायको अच्छी तरहसे उद्घाटित किया गया है। अतः सर्वार्थसिद्धिको समझने में इससे बहुत सहायता मिलती है। __ यद्यपि श्रुतसागरसूरि अनेक शास्त्रोंके प्रकाण्ड पण्डित थे फिर भी 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे' इस सक्तिके अनुसार उन्होंने भी तत्त्वार्थवृत्तिमें कुछ गलतियां की हैं और इन गलतियोंका उद्घाटन विद्वान् सम्पादकने प्रस्तावनामें किया है। जैसे सूत्र संख्या ९/५ की वृत्तिमें आदाननिक्षेपसमितिका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है धर्मोपकरणग्रहणविसर्जने सम्यगवलोक्य मयूरवर्हेण तदभावे वस्त्रादिना प्रतिलिख्य स्वीकरणं विसर्जनञ्च सम्यगादाननिक्षेपसमितिभवति । अर्थात् धर्मके उपकरणोंको मोरको पीछी से, पीछीके अभावमें वस्त्र आदिसे अच्छी तरह झाड़ पोंछकर उठाना और रखना सम्यक् आदाननिक्षेपसमिति है। यहाँ श्रुतसागरसूरिने मयूरपिच्छके अभावमें वस्त्रादिके द्वारा धर्मोपकरणोंके प्रतिलेखनका जो विधान किया है वह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है । इसी प्रकार सूत्र संख्या ९/४७ में आगत लिंग शब्दकी व्याख्या करते हुए लिखा है लिङ्ग द्विप्रकार द्रव्यभावभेदात् । तत्र पञ्चप्रकारा अपि निर्ग्रन्था भावलिङ्गिनो भवन्ति । द्रव्यलिङ्ग तु भाज्यम् । तत्किम् ? केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरोरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम् । ___ अर्थात् लिंगके दो भेद है-द्रव्यलिंग और भावलिंग । पाँचों प्रकारके मुनियोंमें भावलिंग समानरूपसे पाया जाता है। द्रव्यलिंगकी अपेक्षासे उनमें कुछ भेद पाया जाता है। कोई असमर्थ मनि शीतकाल आदिमें कम्बल आदि वस्त्रोंको ग्रहण कर लेते हैं। लेकिन उस वस्त्रको न धोते हैं और फट जाने पर न सीते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9