Book Title: Tattvarthvrutti Ek Adhyayan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 6
________________ ६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ प्रस्तावना में सर्वप्रथम भगवान् महावीरके समकालीन ६ प्रमुख तीर्थनायकोंके मतोंपर विचार किया गया है । उनके नाम तथा मत इस प्रकार हैं- (१) अजितकेशकम्बलि ( भौतिकवाद, उच्छेदवाद ) (२) मक्ख लिगोशाल ( नियतवाद ) (३) पूरणकश्यप ( अक्रियावाद ( ४ ) प्रक्रुधकात्यायन ( कूटस्थ नित्यवाद ) (५) संजय बेलट्ठपुत्त ( संशयवाद ) ( ६ ) गौतमबुद्ध ( अव्याकृतवाद, अनात्मवाद ) । इसके बाद सम्पादकने भगवान् महावीरके विषय में बतलाया है कि वे न तो अनिश्चयवादी थे, न अव्याकृतवादी और न भूतवादी । यथार्थ में वे अनेकान्तवादी और स्याद्वादी थे । उन्होंने बतलाया था कि न तो कोई द्रव्य नया उत्पन्न होता है और न उसका सर्वथा विनाश होता है । किन्तु प्रत्येक द्रव्यमें प्रतिक्षण परिवर्तन अवश्य होता रहता है। क्योंकि उसका यही स्वभाव है। महावीरने कहा था - "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा " - अर्थात् प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है और ध्रुव है । इसके अतिरिक्त महावीरने प्रत्येक वस्तुको अनन्तधर्मात्मक बतलाया है । तदनन्तर भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। इस सात तत्वोंका श्रद्धान और ज्ञान मुमुक्षुके लिए आवश्यक है । इसी प्रकरणमें बुद्धके अनात्मवादका युक्तिपूर्वक निराकरण करके जैनदर्शन सम्मत आत्माका स्वरूप उसके भेद आदिके विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है । सात तत्त्वों के विवेचनके बाद सम्पादकने सम्यग्दर्शनके विषयमें अनेक शीर्षकोंके विस्तारसे विचार किया है । यथा- सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनका यर्थार्थ स्वरूप बतलाने के बाद सम्पादकने लिखा है सम्यग्दर्शनके अन्तरंग स्वरूपकी जगह आज बाहरी पूजा-पाठने ले ली है । जो महावीर और पद्मप्रभु वीतरागता के प्रतीक थे आज उनकी पूजा व्यापार-लाभ, पुत्रप्राप्ति, भूतबाधा शान्ति जैसी क्षुद्रकामनाओं की पूर्ति के लिए ही की जाने लगी है । इनके मन्दिरों में शासना देवता स्थापित हुए हैं और उनकी पूजा और भक्तिने ही मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है । और यह सब हो रहा है सम्यग्दर्शनके पवित्र नाम पर । परम्पराका सम्यग्दर्शन यहाँ बतलाया गया है कि प्राचीन होनेसे हो कोई विचार अच्छा या नवीन होनेसे ही कोई विचार बुरा नहीं कहा जा सकता । किन्तु जो समीचीन हो वही ग्राह्य होता है । सभी पुराना अच्छा और सभी नया बुरा नहीं हो सकता है । अतः बुद्धिमान् लोग परीक्षा करके उनमेंसे जो समीचीन होता है उसको ग्रहण कर लेते हैं । अतः प्राचीनताके मोहको छोड़कर समीचीनताकी ओर दृष्टि रखना आवश्यक है। क्योंकि इस प्राचीनता मोहने अनेक अन्धविश्वासों और कुरूढ़ियोंको जन्म दिया है । संस्कृतिका सम्यग्दर्शन इसमें बतलाया गया है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । बच्चा जब उत्पन्न होता है उस समय वह बहुत कम संस्कारों को लेकर आता है और उसका ९९ प्रतिशत विकास माता-पिताके संस्कारोंके अनुसार होता है । यदि किसी चाण्डालका बालक ब्राह्मणके यहाँ पले तो उसमें बहुत कुछ संस्कार ब्राह्मणोंके आ जाते हैं । तात्पर्य यह है कि नूतन पीढ़ी के लिए माता-पिता हो बहुत कुछ उत्तरदायी होते हैं । आज संस्कृतिकी रक्षा के नामपर लोग समाजमें अनेक प्रकारके अनर्थ करते रहते हैं । अतः सबसे पहले जैन संस्कृतिके स्वरूप को जानना आवश्यक है। क्योंकि जैन संस्कृतिने आत्मा के अधिकार और स्वरूपकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है और कहा है कि संस्कृति का सम्यग्दर्शन हुए बिना आत्मा कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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