Book Title: Tattvarthvrutti Ek Adhyayan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 7
________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ :७ अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन इसमें बतलाया गया है कि जगत में जो सत है उसका सर्वथा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नये किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता। जीव, पुद्गल आदि जो छह मौलिक द्रव्य हैं इनमें से न तो कोई द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया द्रव्य उत्पन्न होकर इसकी संख्यामें वृद्धि कर सकता है। प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है। द्रव्यगत मल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत हैं। जैनदर्शनकी दृष्टिसे द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं, पर उनके प्रतिक्षणके परिणमन अनियत हैं। इस प्रकरणमें सम्पादकने नियतिवादका निर्भयतापूर्वक खण्डन किया है। वे लिखते हैं-"जो होना होगा वह होगा ही, इसमें हमारा कुछ भी पुरुषार्थ काम नहीं करता है।" इस प्रकारके नियतिवाद सम्बन्धी विचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। नियतिवाद दृष्टिविष है। 'ईश्वरकी मर्जी', 'विधिका विधान' इत्यादि प्रकारके शब्दोंका प्रयोग पुरुषार्थकी महत्ताको कम कर देते हैं। नियतिवादका कालकूट ईश्वरवादसे भी भयंकर है । नियतिवादमें पुण्य और पापकी व्यवस्था भी नहीं बन सकती है। जब प्रत्येक जीवका प्रति समयका परिणमन निश्चित है तब क्या पुण्य और क्या पाप । ऐसा क्यों हुआ? नियतिवादमें इस प्रश्नका एक ही उत्तर है-ऐसा ही होना था, जो होना होगा सो होगा ही।" नियतिवादमें पुरुषार्थका कोई स्थान नहीं है। इत्यादि प्रकारसे संपादकने नियतिवादके सम्बन्धमें विस्तारसे जो प्रतिपादन किया है वह चिन्तनके योग्य है। निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन यहाँ बतलाया गया है कि निश्चयनय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको बतलाता है। उसकी दृष्टि वीतरागतापर रहती है। निश्चयनय जहाँ मल द्रव्य स्वभावको विषय करता है वहाँ व्यवहारनय परसापेक्ष पर्याय को विषय करता है। निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभतार्थ है । मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्माओं स्थिति एक प्रकार की है। शद्ध द्रव्यस्वरूप उपादेय है यही निश्चयनय की भूतार्थता है। व्यवहारनयकी अभतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायॊको विषय करता है वे विभाव पर्यायें हेय हैं, उपादेय नहीं। परनिरपेक्ष द्रव्यस्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याय निश्चयनयके विषय है और परसापेक्ष परिणमन व्यवहारनयके विषय है। परलोकका सम्यग्दर्शन यहाँ बतलाया गया है कि जब आत्मा एक स्थूल शरीरको छोड़कर अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है तो वह परलोक कहलाता है। परलोकका अर्थ मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और देवगति इन चार गतियोंसे है। नरक अत्यन्त दुःखके स्थान हैं और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदयके स्थान हैं । इनमें मनुष्य कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता है किन्तु मनुष्यके लिए मरकर उत्पन्न होनेके दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्ममें सुधार सकता है। ये स्थान हैं मनुष्ययोनि और पशुयोनि । अतः आधे परलोकका सुधारना हमारे हाथमें है । हमें मनुष्य समाज और पशु समाजको इस योग्य बना लेना चाहिए कि यदि इनमें पुनः जन्म लेना पड़े तो अनुकूल वातावरण तो मिल जाय । परलोकका अर्थ दूसरे लोग भी होता है । अतः परलोकके सुधारका अर्थ मानव समाजका सुधार भी होता है। इसके अतिरिक्त परलोकका अर्थ हमारी सन्तति और शिष्य परम्परा भी हो सकता है। इसलिए परलोक सुधारनेका अर्थ है अपनी सन्तान और शिष्य परम्पराको सुधारना । इस प्रकार परलोकके सुधारके लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता है। कर्म सिद्धान्तका सम्यग्दर्शन यहाँ यह बतलाया गया है कि जैनदर्शनके अनुसार प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है। और वह स्वयं अपने भाग्यका विधाता है । अपने कर्मका कर्ता और उसके फलका भोक्ता भी वही है । किन्तु अनादि से कर्म पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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