Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ प्रस्तावना दुःस्वनिरोधका मार्ग है, आष्टागिव-मागे-सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्बग्वचन, नायक बने. सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । नैरात्म्यभावना मुम्य रूपा मार्ग है। बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्यदृष्टिको ही मिथ्यादर्शन कहा है । उनका कहना है एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति उसे स्व और अन्यका पर समझता है। स्व-पर विभागमे परिग्रह और देष हात है और ये रागद्वेष ही समस्त संसार परम्पराके मूलस्रोत है। अतः इस सर्वानर्थमूलिका आत्मष्ट्रिको नाशकर नैरात्म्यभावनासे दुःखनिरोध होता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नजका बुष्टिकोण-उपनिषद्का' तन्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता था और आत्मदर्शनषा ही तत्त्वज्ञान और मोक्षका परमसाधन मानता था और मुमुक्षुके लिए आत्मज्ञानको ही जीवनवा मच्चिमाध्य सममता था वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही मनिमल माना । आत्मदृष्टि या सत्त्वप्टिका ही वृद्धने मिथ्यादृष्टि कहा और नैरात्म्यदर्शनको दुःखनिरोधका प्रधान न बतारा । यह औपनिषद तत्वज्ञानको ओट में जा याझिक क्रियाकाण्डको प्रश्रय दिया जा रहा था उसीकी प्रतिक्रिया थी जो बद्धका आत्म शब्दसह चिढ़ होन: थी। स्मिात्मवादको उनने राग और प्रेषका कारण समझा, जव कि औपनिषदवादी आत्मदर्शनको विरागका कारण मानने थे। बुद्ध और औपनिषददादो दोनों ही गगवेष और मोहका प्रभाकर बीत गमला और दामनानिक्तिको ही अपना लण्य मानते थे पर साधन दोनोंके जुदा जुदा थे और इतनं ज'दे कि एक जिन मश: कारण मानता था दूसरा उसे संसारका मूल कारण । इसका एक कारण और भी था और वह था उद्धका दार्शनिक मानस न होना । मज ऐगे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे जिनका निर्णय न हो सके या जिनकी ओट में भ्रान्त धारणाओंकी मण्टि होनी हो । 'आन्मा उन्हें ऐसा ही माल महा । पर दवादियोंका तो यही मल आधार था । बुद्ध की नराम्यभावनाका उद्देश्य बोधिचर्यादनाग्म इस प्रकार बनाया है "प्रतस्ततो वाऽस्त भयं या नाम किञ्चन । अहमेव यदा न स्यां कुसो भौतिभविष्यति ॥' अर्थात-यदि 'मैं' नामका कोई पदार्थ होता तो उसे इससे या उसमे भय हो सकता था पर टब में ही नहीं है तब भय किसे होगा? बुद्ध जिस प्रकार भौतिकवादरूपी एक अन्तको खतरा समझते थे तो इस शाश्वत आत्मवाद भयो दुसरे अन्तको भी उमी नाह खतरा मानने थे और इसलिए उनने इस आत्मवादको अव्याकृत अथान अनेकांशिक प्रश्न कहा । तथा भिक्षुओंको स्पष्टरूपसे कह दिया कि इस अात्मवादकै विषयमं कुछ भो बहना का सुनना न बोधिके लिए न ब्रह्मचर्यके लिए और न निबाणके लिए ही उपयोगी है। निग्गठमाथपुत्त महावीर भी वैदिक प्रियाकाण्डको उतना ही निरर्थक और श्रेयःप्रतिरोधी मानते थे जितना कि खुश, और आचार अर्थात् चरित्रको ही वे मोक्षका अन्तिम साधन मानने थे । पर उनने यह माक्षर अनुभव किया कि जबतक विश्वव्यवस्था और खासकर उस आत्माक स्वरूपके संबंध शिष्य निश्चित दिनार नहीं बना लेता है जिस आत्माको दुःख होता है और जिसे दुःखको निवृति करकं निर्वाण पाना है तबतक वह मानसविचिकित्सासे मक्त होकर साधना कर ही नहीं सकता। जब बाह्यजगत के प्रत्येक झोंकेमें यह आवाज गंज रही हो कि "आत्मा देहरूपमा देहमे भिन्न? परलोक प्रया है : निर्वाण मा है ?" और अन्यतीर्धिक अपना मत प्रचारित कर रहे हों, इमीको लेकर वाद रोपे जाने हो उस समय सियोंको यह कहकर तत्काल चुप तो किया जा सकता है कि क्या रखा है इस विवादमे कि आत्मा क्या है, हम तो दुःख निवृनिके लिए प्रयास करना चाहिए' परन्तु उनकी मानसशल्य और बुद्धिविचिकिल्मा नहीं निकाल सकती और वे इस बौदिकहीनता और विचारदीनताके हीननर भावोंसे अपने वित्तकी रक्षा नहीं कर सकते । संघमें इन्हीं अन्यतीथिका शिष्य और खासकर वैदिक ब्राह्मण भी दीक्षित होते थे। जब ये सब पंचमेल व्यक्ति जो मूल आत्माके विषयम "त्मा वा मरे द्रश्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो विदध्वासितभ्यः ।" पदा० ४३५।६।

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