Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 16
________________ तन्वनिरूपण और उनके फरलोंका भोक्ता है। उममें स्वयं परिणमन होता है। उपादान रूपये पनी आत्मा राग ऐप मोह अज्ञान कोष आदि विकार परिणामोंको धारण करता है और उसके फलोंको भोगता है। मंसार दगामें कमंके अनुसार नानाविध योनियों में शरीरोंवा धारण करना है गर मुक्त होते ही स्वभावतः गमन करना है और लोफानभागम सिद्धलोकमं स्त्ररूपप्रतिष्टित हो जाता है। अन: महावीग्ने बन्ध मोक्ष और उसके कारणमन नस्योंके सिवाय इस आत्मा का भी ज्ञान आवश्यक बनाया जिमे शुद्ध होना है तथा जो अशुद्ध हो रहा है। आत्माकी अगुह दशा स्वरूपप्रच्युनिरूप में और यह स्वस्वरूपको भलकर पदार्थोम ममगार और अहंकार करनेके कारण हुई है। अतः इम अशुद्ध दशाका अन्त भी म्वरूपज्ञानमें ही हो सकता है। जब इम आत्माको यह तस्यज्ञान होता है कि-- "मेरा स्वरूप तो अनन्त चतन्यमय वीतराग निह निष्वषाय शान्त निश्चल अप्रमत जानरूप है । इस स्वरुपको भन्दकार पर पदार्थोमं ममकार तथा शरीरको अपना पानने के कारण गग इंप माह कपार प्रभाद मिथ्यात्व आदि विकाररूप मेरा परिणभन हो गया है और उन षायोंकी ज्वालाम मंग Fप ममल और चंचल प्रो रहा है। यदि पदामि ममकार और गगादिभावोस अहंकार हट गय था आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अद्ध दशा वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायगी। तो यह विकागं को क्षीण करना हुआ नििित्रका चनन्यसा होता जाता हैं। इसी द्धिवरण को मोक्ष कहतं । यह मोक्ष जबतक शुद्ध आत्मम्वरूपका पाशिके वनाधाको सुविद्यासागर जी महाराज बद्धक तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दाखसे होता है और उसकी सगाप्तियनिवनि में होती है । पर महा. वीर बन्ध और मोक्षके आधार भूत आत्माको ही मूलत: तत्त्वज्ञानका आधार बनाते हैं । इदको आत्मा दान हो चिढ़ है। वे समझते हैं कि आत्मा अर्थात उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा । और नित्य माम स्नेह होने के कारण स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थोंम पर बुद्धि होने लगती है। स्त्र-पर विभागसे रगड़प और गग द्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः सनियंभट यह आन्मदष्टि । पर वे इस ओर ध्यान नहीं देने कि 'आत्मा' की नियना या अनित्यता गग ऑर विगगका कारण नहीं है। गग और बिग़ग तो स्वरूपानवबोध और व्यरूपबोच मे होने हैं। रागका कारण पर पदार्थों में ममकार माना है। जब इस आत्माका संमनाया जायना वि "मर्च तेग रवम.प नो निर्विकार अन्नष्ट है। गइन म्पी पुत्र गरीदि में ममत्व करना विभाव है स्वभाव नहीं । नत्र याद राहही अपने निविदा महज स्वभावकी ओर द. ष्टि डालेगा और इसी विवेक दृष्टि या सम्यग्दर्शन पर पदाभि रागदप हटाकर स्वपमें लीन होने लगेगा। इनीके कारण आम्रव स्कने और चिन्न निरावध होता ! आत्मवृष्टि हो बन्धोक विका–विश्वना प्रत्येक द्रव्य अपने गण और पर्याय का स्वामी है। जिस तुम्ह अनन्त चतन अपना पृथक् अस्तित्व रखते है उसी गाई अनन्त पुदगल परमाणु एक धर्म द्रव्य (गनि नहायक। एक अधर्म द्रव्य (स्थिति सहकारी) एक आकाशद्रव्य (क्षेत्र) अगम्य वाला अपना पृथक अभिनय रखते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिवर्तित होता है। रिवर्तनका अयं विलक्षण परिणमन ही नहीं होता। धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश और कालद्रव्य इनवा त्रिभाव परिण मन नहीं होना, ये मदा मदश परिमन ही मनं हैं। प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी एक जमे बन रहते हैं। इनका जड़ परिणमन ही रहता है। मप4 गन्ध और मार्शवाले पुद्गल परमाणु प्रतिक्षण शुद्ध पगिगमन भी करते हैं। इनका अनुद्ध परिणमन है वन्य बनना । जिस समय ये शुद्ध परमाणु की दशागं रहल है उस समय उनका शुद्ध परिणमन होना है और जब ये दो या अधिक मिलकर स्कन्ध वन जाने है तब अशुद्ध परिणमनना है । जीव जवनक गमार दयाम है और अनेकविध सूक्ष्म कमशरीरमे बाद शनि के कारण अनेक पल शरीरोंको धारण करता है तबतक इमका निभाव वा विकारी पणिमन है। जब वध्य-बोध के दाग पर पदाोय मोह हटाक" स्वरूपमात्र. मग्न होता है तन स्थल दारीग्वं साथ ही मुख्य कामगरका भी उच्छेद होनेगा निविकार वाद चैतन्य माग

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